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________________ [स्थानाङ्गसूत्र (निःकांक्षित, निविचिकित्सिक, अभेदसमापन्न) और अकलुषसमापन्न होकर निर्ग्रन्थ-प्रवचन में श्रद्धा करता है, प्रीति करता है, रुचि करता है, वह परीषहों से जूझ-जूझ कर उन्हें अभिभूत कर देता है, उसे परीषह अभिभूत नहीं कर पाते / 2. जो मुण्डित हो अगार से अनगार धर्म में प्रवजित होकर पाँच महावतों में निःशंकित, निःकांक्षित (निविचिकित्सिक, अभेदसमापन और अकलुषसमापन्न होकर पाँच महाव्रतों में श्रद्धा करता है, प्रीति करता है, रुचि करता है, वह) परीषहों से जूझ-जूझ कर उन्हें अभिभूत कर देता है, उसे परीषह अभिभूत नहीं कर पाते / 3. जो मुण्डित हो अगार से अनगार धर्म में प्रवजित होकर छह जीव-निकायों में निःशंकित (निःकाक्षित, निर्विचिकित्सिक, अभेदसमापन्न और अकलुषसमापन्न होकर छह जीवनिकाय में श्रद्धा करता है, प्रीति करता है, रुचि करता है, वह) परीषहों से जूझ-जूझ कर उन्हें अभिभूत कर देता है, उसे परीषह जूझ-जूझ कर अभिभूत नहीं कर पाते (524) / पृथ्वी-वलय-सूत्र ५२५---एगमेगा णं पुढवी तिहि वलएहि सव्वश्रो समंता संपरिक्खित्ता, त जहा-घणोदधिवलएणं, धणवातवलएणं, तणुवायवलएणं / रत्नप्रभादि प्रत्येक पृथ्वी तीन-तीन वलयों के द्वारा सर्व ओर से परिक्षिप्त (घिरी हुई) है-- धनोदधिवलय से, घनवात वलय से और तनुवात वलय से (525 ) / विग्रहगति-सूत्र ५२६----णेरइया णं उक्कोसेणं तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जंति / एगिदियवज्ज' जाव वेमाणियाणं। नारकी जीव उत्कृष्ट तीन समय वाले विग्रह से उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार एकेन्द्रियों को छोड़कर बैमानिक देवों तक के सभी जीव उत्कृष्ट तीन समय वाले विग्रह से उत्पन्न होते हैं (526) / विवेचन--विग्रह नाम शरीर का है। जब जीव मर कर नवीन जन्म के शरीर-धारण करने के लिए जाता है, तब उसके गमन को विग्रह-गति कहते हैं / यह दो प्रकार की होती है, ऋजगति और वक्रगति / ऋजुगति सीधी समश्रेणी वाले स्थान पर उत्पन्न होने वाले जीव की होती है और उसमें एक समय लगता है / वक्र नाम मोड़ का है / जब जीव मरकर विषम श्रेणी वाले स्थान पर उत्पन्न होता है तब उसे मुड़कर के नियत स्थान पर जाना पड़ता है। इसलिए वह वक्रगति कही जाती है। वक्रगति के तीन भेद हैं-पाणिमुक्ता, लांगलिका और गोमूत्रिकागति / ये तीनों संज्ञाएं दिगम्बर शास्त्रों नुसार दी गई हैं। जैसे पाणि (हाथ) से किसी वस्तु के फेंकने से एक मोड़ होता है, उसी प्रकार जिस विग्रह या वक्रगति में से एक मोड़ लेना पड़ता है, उसे पाणिमुक्ता-गति कहते हैं। इस गति में दो समय लगते हैं। लांगल नाम हल का है। जैसे हल के दो मोड होते हैं, उसी प्रकार जिस वक्रगति में दो मोड़ लेने पड़ते हैं, उसे लांगलिक गति कहते हैं / इस गति में तीन समय लगते हैं। बैल चलते हुए जैसे मूत्र (पेशाब) करता जाता है तब भूमि पर पतित मूत्र-धारा में अनेक मोड़ पड़ जाते हैं। इसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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