________________ तृतीय स्थान-चतुर्थ उद्देश ] [ 167 प्रकार तीन मोड़ वाली गति को गोमूत्रिका-गति कहते हैं। इस गति में तीन मोड़ और चार समय लगते हैं। प्रस्तुत सूत्र में तीन समय वाली दो मोड़ की गति का वर्णन किया गया है। एकेन्द्रिय जीवों के सिवाय सभी दण्डकों के जीव किसी भी स्थान से मर कर किसी भी स्थान में दो मोड़ लेकर के तीसरे समय में नियत स्थान पर उत्पन्न हो जाते हैं, क्योंकि सभी त्रस जीव वसनाडी के भीतर ही उत्पन्न होते और मरते हैं / किन्तु स्थावर एकेन्द्रिय-जीव वसनाडी से बाहर भी समस्त लोककाश में कहीं से भी मर कर कहीं भी उत्पन्न हो सकते हैं / अतः जब कोई एकेन्द्रिय जीव निष्कुट (लोक का कोणप्रदेश) क्षेत्र से मर निष्कुट क्षेत्र में उत्पन्न होता है, तब उसे तीन मोड़ लेने पड़ते हैं और उसमें चार समय लगते हैं / अतः ‘एकेन्द्रिय को छोड़कर' ऐसा सूत्र में कहा गया है। क्षीणमोह-सूत्र ५२७-खोणमोहस्स णं अरहो तो कम्मंसा जुगवं खिज्जति, त जहा–णाणावरणिज्ज, दंसणावरणिज्ज, अंतराइयं / क्षीणमोहवाले अर्हन्त के तीन सत्कर्म (सत्ता रूप में विद्यमान कर्म) एक साथ नष्ट होते हैंज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्म (527) / नक्षत्र-सूत्र ५२८-अभिईणक्खत्ते तितारे पण्णत्ते। ५६६-एवं-सवणे, अस्सिणी, भरणी, मगसिरे, पूसे, जेट्ठा। अभिजित नक्षत्र तीन तारावाला कहा गया है इसी प्रकार श्रवण, अश्विनी, भरणी, मृगशिर पुष्य और ज्येष्ठा भी तीन-तीन तारा वाले कहे गये हैं (528-526) / तीर्यकर-सूत्र ५३०-धम्मानो णं अरहानो संतो परहा तिहिं सागरोवमेहि तिचउम्भागपलिप्रोवमऊणएहि वोतिक्कतेहि समुप्पण्णे। धर्मनाथ तीर्थकर के पश्चात् शान्तिनाथ तीर्थंकर त्रि-चतुर्भाग (4) पल्योपम-न्यून तीन सागरोपमों के व्यतीत होने पर समुत्पन्न हुए (530) / ५३१-समणस्स णं भगवओ महावीरस्स जाव तच्चानो पुरिसजुगाओ जुगंतकरभूमी। श्रवण भगवान् महावीर के पश्चात् तीसरे पुरुषयुग जम्बूस्वामी तक युगान्तकर भूमि रही है, अर्थात् निर्वाण-गमन का क्रम चलता रहा है (531) / ५३२-मल्ली णं अरहा तिहिं पुरिससहि सद्धि भुडे भवित्ता [अगाराम्रो प्रणगारियं] पव्वाइए। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org