________________ तृतीय स्थान-चतुर्थ उद्देश] [ 165 3. वह मुण्डित हो अगार से अनगार धर्म में प्रवजित होकर छह जीव-निकायों में [शंकित, कांक्षित, विचिकित्सिक, भेदसमापन्न और कलुष-समापन्न होकर छह जीव-निकाय पर श्रद्धा नहीं करता, प्रतीति नहीं करता, रुचि नहीं करता / उसे परीषह प्राप्त होकर अभिभूत कर देते हैं, वह परीषहों से जूझ-जूझ कर उन्हें अभिभूत नहीं कर पाता। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में जिन तीन स्थानों की श्रद्धा आदि नहीं करने पर अनगार परीषहों से अभिभूत होता है वे हैं-निर्ग्रन्थ प्रवचन, पंच महाव्रत और छह जीव-निकाय / निर्ग्रन्थ साधु को इन तीनों स्थानों का श्रद्धालु होना अत्यन्त आवश्यक है, अन्यथा उसकी सारी प्रव्रज्या उसी के लिए दुःखदायिनी हो जाती है। इस सम्बन्ध में सूत्र-निर्दिष्ट विशिष्ट शब्दों का अर्थ इस प्रकार है--- अहित-अपथ्यकर / अशुभ--पापरूप / अक्षम--असंगतता, असमर्थता / अनिःश्रेयस-- अकल्याणकर, अशिवकारक / अनानुगामिकता---प्रशूभानुबन्धिता, अशुभ-शृखला / शंकित--शंकाशील या संशयवान् / कांक्षित--मतान्तर की आकांक्षा रखने वाला / विचिकित्सित--ग्लानि रखने वाला। भेदसमापन---फलप्राप्ति के प्रति दुविधाशील / कलुषसमापन्न---कलुषित मन वाला। जो साधु-दीक्षा स्वीकार करने के पश्चात् उक्त तीन स्थानों पर शंकित, कांक्षित यावत् कलुषसमापन्न रहता है, उसके लिए वे तीनों ही स्थान अहितकर यावत् अनानुगामिता के लिए होते हैं और वह परीषहों पर विजय न पाकर उनसे पराभव को प्राप्त होता है। श्रद्धालु-विजय-सूत्र ___५२४--तम्रो ठाणा धवसियस हिताए [सुभाए खमाए णिस्सेसाए] प्राणुगामियणाए भवंति, त जहा 1. से णं मुंडे भवित्ता अगारामो अणगारियं पव्वइए णिग्गंथे पावयणे णिसंफित [णिक्कंखित णिग्वितिगिच्छित णो भेदसमावण्णे] जो कलुससमावण्णे णिगंणं पावयणं सद्दहति पत्तियति रोएति, से परिस्सहे अभिजुजिय-अमिजुजिय अभिभवति, णो त परिस्सहा अभिजुजियअभिजुजिय अभिभवति / 2. से णं मुडे भवित्ता प्रगाराम्रो अणगारियं पवइए समाणे पंचहि महत्वएहि णिस्संकिए णिक्कंखिए [णिन्वितिगिच्छिते जो भेदसमावणे णो कलुससमावण्ण पंच महव्वताइंसदहति पत्तियति रोएति, से] परिस्सहे अभिजु जिय-अभिजु जिय अभिभवइ, णो त परिस्सहा अभिजुजिय-अभिजिय अमिभवंति। 3. से णं मुंडे भवित्ता अगारापो अणगारियं पब्वइए छहिं जीवणिकाएहि णिस्संकित [णिक्कंखित णिबितिगिच्छित णो भेदसमावण्णे णो कलुससमावण्णे छ जीवणिकाए सद्दहति पत्तियति रोएति, से] परिस्सहे अभिजुजिय-अभिजिय अभिभवति, णो तं परिस्सहा अभिजुजिय-अभिजु जिय अभिभवति / व्यवसित (श्रद्धालु) निर्ग्रन्थ के लिए तीन स्थान हित [शुभ, क्षम, निःश्रेयस] और अनुगामिता के कारण होते हैं। 1. जो मुण्डित हो अगार से अनगार धर्म में प्रवजित होकर निर्ग्रन्थ-प्रवचन में निःशंकित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org