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________________ 194] [स्थानाङ्गसूत्र __ संक्लेश की वृद्धि होते हुए अज्ञानी जीव का जो मरण होता है, वह संक्लिष्टलेश्य मरण कहलाता है / यह तब संभव है, जबकि नीलादि लेश्यावाला जीव मरण कर कृष्णादि लेश्यावाले नारकों में उत्पन्न होता है / विशुद्धि की वृद्धि से युक्त लेश्या वाले अज्ञानी जीव के मरण को पर्यवजात लेश्य मरण कहते हैं। यह तब होता है जब कि कृष्णादि लेश्या वाला जीव मर कर नीलादि लेश्या वाले नारकों में उत्पन्न होता है / पंडितमरण संयमी पुरुष का ही होता है, अतः उसमें लेश्या की संक्लिश्यमानता नहीं है, अतः वह वस्तुतः दो ही प्रकार का होता है / बाल-पंडित मरण संयतासंयत श्रावक के होता है और वह स्थित लेश्या वाला होता है, अत: उसके संक्लिश्यमान और पर्यवजात लेश्या संभव नहीं होने से स्थितलेश्य रूप एक ही मरण होता है। इसी कारण उसका मरण असंक्लिष्टलेश्य और अपर्यवजातलेश्य कहा गया है।। अश्रद्धालु-सूत्र ५२३–तओ ठाणा अवसितस्स अहिताए असुभाए अखमाए अणिस्सेसाए प्रणाणुगामियत्ताए भवंति, त जहा 1. से णं मुडे भवित्ता अगारामो अणगारियं पवइए णिग्गंथे पावयणे संकिते कंखिते वितिगिच्छिते भेदसमावण्णे कलुससमावण्णे णिग्गंथं पावयणं णो सद्दहति णो पत्तियति णो रोएति, त परिस्सहा अभिजिय-अभिजुजिय अभिमवंति, णो से परिस्सहे अभिजुजिय-अभिजु जिय अभिभवइ / 2. से णं मुडे भवित्ता अगाराम्रो अणगारित पन्वइए पंचहि महन्वहि संकिते [कंखिते वितिगिच्छिते भेदसमावणे ] कलुससमावण्णे पंच महन्वताई णो सहति णो पत्तियति णो रोएति, त परिस्सहा अभिजु जिय-अभिजु जिय अभिभवति] णो से परिस्सहे अभिजु जिय-अभिजु जिय अभिभवति। 3. से णं मडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्वइए छहिं जीवणिकाएहि [संकित कंखित वितिगिच्छित भेदसमावण्णे कलुससमावण्णे छ जीवणिकाए णो सद्दहति णो पत्तियति णो रोएति, त परिस्सहा अभिजु जिय-अभिजु जिय अभिभवंति, णो से परिस्सहे अभिजुजिय-अभिजु जिय] अभिभवति / अव्यस्थित (अश्रद्धालु) निर्ग्रन्थ के तीन स्थान अहित, अशुभ, अक्षम, अनिःश्रेयस और अनानुगामिता के कारण होते हैं 1. वह मुण्डित हो अगार से अनगार धर्म में प्रवजित होकर निर्ग्रन्थ प्रवचन में शंकित, कांक्षित, विचिकित्सक, भेदसमापन्न और कलुष-समापन्न होकर निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर श्रद्धा नहीं करता, प्रतीति नहीं करता, रुचि नहीं करता। उसे परीषह आकर अभिभूत कर देते हैं, वह परीषहों से जूझजूझ कर उन्हें अभिभूत नहीं कर पाता। 2. वह मुण्डित हो अगार से अनगार धर्म में प्रवजित होकर पाँच-महाव्रतों में शंकित, (कांक्षित, विचिकित्सिक, भेदसमापन्न) और कलुषसमापन्न होकर पाँच महाव्रतों पर श्रद्धा नहीं करता, प्रतीति नहीं करता, रुचि नहीं करता / उसे परीषह पाकर अभिभूत कर देते हैं, वह परीषहों से जूझ-जूझ कर उन्हें अभिभूत नहीं कर पाता (523) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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