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________________ 184] [स्थानाङ्गसूत्र 4. निविष्टकायिक स्थिति-जिन तीन प्रकार की कल्पस्थितियों का सूत्र के उत्तर भाग में निर्देश किया गया है उसमें पहिली निविष्ट कल्पस्थिति है। परिहारविशुद्धि समय की साधना सम्पन्न कर चुकने वाले साधुओं की स्थिति को निर्विष्ट कल्पस्थिति कहते हैं / इसका खुलासा इस प्रकार है परिहारविशुद्धि संयम की साधना में नौ साधु एक साथ अवस्थित होते हैं। उनमें चार साधु पहिले तपस्या प्रारम्भ करते हैं, उन्हें निर्विशमान कल्पस्थितिक साधु कहा जाता है / चार साधु उनकी परिचर्या करते हैं, तथा एक साधु वाचनाचार्य होता है। निर्विशमान साधुनों की तपस्या का क्रम इस प्रकार से रहता है-वे साधु ग्रीष्म, शीत और वर्षा ऋतु में जघन्य रूप से क्रमश: चतुर्थ-भक्त, षष्ठभक्त और अष्टमभक्त की तपस्या करते हैं / मध्यम रूप से उक्त ऋतुओं में क्रमशः षष्ठभक्त, अष्टमभक्त और दशमभक्त की तपस्या कहते हैं। तथा उत्कृष्ट रूप से उक्त ऋतुओं में क्रमशः अष्टमभक्त, दशमभक्त और द्वादशभक्त की तपस्या करते हैं / पारणा में साभिग्रह आयम्बिल की तपस्या करते हैं। शेष पांचों साधु भी इस साधना-काल में प्रायम्बिल तप करते हैं / पूर्व के चार साधुओं की तपस्या समाप्त हो जाने पर शेष चार तपस्या प्रारम्भ करते हैं तथा साधना-समाप्त कर चुकने वाले चारों साधु उनकी परिचर्या करते हैं, उन्हें निविष्टकल्पस्थिति वाला कहा जाता है / इन चारों की साधना उक्त प्रकार से समाप्त हो जाने पर वाचनाचार्य साधना में अवस्थित होते हैं और शेष साधु उनकी परिचर्या करते हैं / उक्त नवों ही साधु जघन्य रूप से नवें प्रत्याख्यान पूर्व की तीसरी आचारनामक वस्तु (अधिकार-विशेष) के ज्ञाता होते हैं और उत्कृष्ट रूप से कुछ कम दश पूर्वो के ज्ञाता होते हैं / ___ दिगम्बर-परम्परा में परिहारविशुद्धि संयम की साधना के विषय में कहा गया है कि जो व्यक्ति जन्म से लेकर तीस वर्ष तक गृहस्थी के सुख भोग कर तीर्थकर के समीप दीक्षित होकर वर्षपृथक्त्व (तीन से नौ वर्ष) तक उनके पादमूल में रह कर प्रत्याख्यान पूर्व का अध्ययन करता है, उसके परिहार-विशुद्धि संयम की सिद्धि होती है / इस तपस्या से उसे इस प्रकार की ऋद्धि प्राप्त हो जाती है कि उसके गमन करते, उठते, बैठते और आहार-पान ग्रहण करते हुए किसी भी समय किसी भी जीव __ को पीड़ा नहीं पहुंचती है।' 1. परिहारप्रधानः शुद्धिसंयतः परिहारशुद्धिसंयतः / त्रिंशद्वर्षारिण यथेच्छया भोगमनुभूय सामान्यरूपेण विशेषरूपेण वा संयममादाय द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावगत-परिमितापरिमितप्रत्याख्यान-प्रतिपादक प्रत्याख्यानपूर्णमहार्णवं समधिगम्य व्यपगतसकलसंशयस्तपोविशेषात समत्पन्नपरिहारद्धिरस्तीर्थकरपादमूले परिहारसंयममादत्त / एयमादाय स्थान-गमन-चङ क्रमरणाशन-पानासनादिषु व्यापारेष्वशेषप्राणिपरिहरणदक्षः परिहारशुद्धिसंयतो भवति / (धवला टीका पुस्तक 1, पृ० 370-371) तीसं वासो जम्मे दासपुधत्त च तित्थयरमूले / पच्चक्खाणं पढिदो संझणद्गाउयविहारो॥ (गो. जीवकांड, गाथा 472) परिहारद्धिसमेतो जीवो षढ़कायसंकुले विहरन् / पयसेव पद्मपत्रं न लिप्यते पापनिवहेत // 1 // (गो. जीवकांड, जीवप्रबोधिका टीका उद्धृत) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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