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________________ तृतीय स्थान-चतुर्थ उद्देश] [ 185 5. जिनकल्पस्थिति-दीर्घकाल तक संघ में रह कर संयम-साधना करने के पश्चात् जो साधु और भी अधिक संयम की साधना करने के लिए गण, गच्छ आदि से निकल कर एकाको विचरते हुए एकान्तवास करते हैं उनकी प्राचार-मर्यादा को जिनकल्पस्थिति कहते हैं। वे प्रतिदिन आयंबिल करते हैं, दश गुण वाले स्थंडिल भूमि में उच्चार-प्रस्रवण करते है, तीसरे प्रहर में भिक्षा लेते हैं, मासकल्प विहार करते हैं, तथा एक गली में छह दिनों से पहिले भिक्षा के लिए नहीं जाते हैं / वे वज्रर्षभनाराच संहनन के धारक और सभी प्रकार के घोरातिघोर उपसर्गों को सहन करने के सामर्थ्य वाले होते हैं। 6. स्थविरकल्पस्थिति-जो प्राचार्यादि के गण-गच्छ से प्रतिबद्ध रह कर संयम की साधना करते हैं, ऐसे साधुओं की प्राचार-मर्यादा स्थविरकल्पस्थिति कहलाती है। स्थविरकल्पी साधु पठनपाठन, शिक्षा, दीक्षा और व्रत ग्रहण आदि कार्यों में संलग्न रहते हैं, अनियत वासी होते हैं, तथा साधु-समाचारी का सम्यक् प्रकार से परिपालन करते हैं। यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि स्थविर कल्पस्थिति में सामायिक चारित्र का पालन करते हुए छेदोपस्थापनीय चारित्र होता है / उसके सम्पन्न होने पर परिहारविशुद्धि चारित्र के भेद रूप निर्विशमान और तदनन्तर निविष्टकायिक संयम की साधना की जाती है और अन्त में जिनकल्पस्थिति की योग्यता होने पर उसे अंगीकार किया जाता है। शरीर-सूत्र ४८३-रइयाणं तो सरीरगा पण्णता, तं जहा-वेउविए, तेयए, कम्मए / ४८४--असुरकुमाराणं तो सरोरगा पण्णत्ता, त जहा—वेउविए, तेयए, कम्मए। ४८५-एवं-सवेसि देवाणं / ४८६-पुढविकाइयाणं तनो सरीरमा पग्णता, त जहा—पोरालिए, तेयए, कम्मए / ४८७-एवंवाउकाइयवज्जाणं जाव चरिदियाणं। नारक जीवों के तीन शरीर कहे गये हैं - वैक्रिय शरीर (नाना प्रकार की विक्रिया करने में समर्थ शरीर) तैजस शरीर (तैजस वर्गणाओं से निर्मित सूक्ष्म शरीर) और कार्मण शरीर (कर्म वर्गणात्मक सूक्ष्म शरीर)(४८३)। असुरकुमारों के तीन शरीर कहे गये हैं-वैक्रिय शरीर, तैजस शरीर और कार्मण शरीर (484) / इसी प्रकार सभी देवों के तीन शरीर जानना चाहिए (485) / पृथ्वीकायिक जीवों के तीन शरीर कहे गये हैं-औदारिक शरीर (औदारिक पुग्दल वर्गणाओं से निर्मित अस्थि-मांसमय शरीर) तैजस शरीर और कार्मण शरीर (486) / इसी प्रकार वायुकायिक जीवों को छोड़कर चतुरिन्द्रिय तक के सभी जीवों के तीन शरीर जानना चाहिए (वायुकायिकों के चार शरीर होने से उन्हें छोड़ दिया गया है) (487) 1 प्रत्यनीक-सूत्र ४८५-गुरु पडुच्च तो पडिणीया पण्णत्ता, त जहा--प्रायरियपडिणीए, उवज्झायपडिणीए, थेरपडिणीए / गुरु की अपेक्षा से तीन प्रत्यनीक (प्रतिकूल व्यवहार करने वाले) कहे गये हैं—प्राचार्यप्रत्यनीक, उपाध्याय-प्रत्यनीक और स्थविर-प्रत्यनीक / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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