________________ तृतीय स्थान- चतुर्थ उद्देश्य ] [183 तीन माण्डलिक (वलयाकार वाले) पर्वत कहे गये हैं---मानुषोत्तर, कुण्डलवर और रुचकवर पर्वत (480) / महतिमहालय-सूत्र 481- तनो महतिमहालया पण्णता, तं जहा–जंबुद्दीवए मंदरे मंदरेसु, सयंभूरमणे समुद्दे समुद्देसु, बंभलोए कप्पे कप्पेसु। तीन महतिमहालय (अपनी-अपनी कोटि में सबसे बड़े) कहे गये हैं—मन्दर पर्वतों में जम्बूद्वीप का सुमेरु पर्वत, समुद्रों में स्वयम्भूरमण समुद्र और कल्पों में ब्रह्मलोक कल्प (481) / कल्पस्थिति-सूत्र ४८२–तिविधा कप्पठिती पण्णता, तं जहा-सामाइयकप्पठिती, छेदोवढावणियकप्पठिती, णिविसमाणकप्पठिती। पण्णता, त जहा–णिन्विटुकप्पद्विती, जिणकप्पद्विती, थेरकप्पट्टिती। कल्पस्थिति तीन प्रकार की कही गई है-सामयिक कल्पस्थिति, छेदोपस्थापनीय कल्पस्थिति और निविशमान कल्पस्थिति / अथवा कल्पस्थिति तीन प्रकार की कही गई है--निविष्टकल्पस्थिति, जिनकल्पस्थिति और स्थविरकल्पस्थिति / विवेचन—साधुओं की आचार-मर्यादा को कल्पस्थिति कहते हैं। इस सूत्र के पूर्व भाग में जिन तीन कल्पस्थितियों का नाम-निर्देश किया गया है, उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है 1. सामायिक कल्पस्थिति सामायिक नामक संयम की कल्पस्थिति अर्थात् काल-मर्यादा को सामायिक-कल्पस्थिति कहते हैं / यह कल्पस्थिति प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के समय में अल्पकाल की होती है, क्योंकि वहां छेदोपस्थापनीय-कल्पस्थिति होती है। शेष बाईस तीर्थकरों के समय में तथा महाविदेह में जीवन-पर्यन्त की होती है, क्योंकि छेदोपस्थानीय-कल्पस्थिति नहीं होती है। ____ इस कल्प के अनुसार शय्यातर-पिण्ड-परिहार, चातुर्यामधर्म का पालन, पुरुषज्येष्ठत्व और कृतिकर्म; ये चार आवश्यक होते हैं। तथा अचेलकत्व (वस्त्र का अभाव या अल्प वस्त्र ग्रहण) प्रौद्देशिकत्व (एक साधु के उद्देश्य से बनाये गये) आहार का दूसरे साम्भोगिक-द्वारा अग्रहण, राजपिण्ड का अग्रहण, नियमित प्रतिक्रमण, मास-कल्प विहार और पर्युषणा कल्प ये छह वैकल्पिक होते हैं। 2. छेदोपस्थापनीय-कल्पस्थिति प्रथम और अन्तिम तीर्थकर के समय में ही हाती है। इस कल्प के अनुसार उपर्युक्त दश कल्पों का पालन करना अनिवार्य है। 3. निविशमान कल्पस्थिति-परिहारविशुद्धि संयम की साधना करने वाले तपस्यारत साधुओं की आचार-मर्यादा को निर्विशमान कल्पस्थिति कहते हैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org