SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 162] [ स्थानाङ्गसूत्र असुभाए असमाए अणिस्सेबसाए प्रणाणुगामियत्ताए भवंति, तनहा-उम्मायं वा लमिज्जा, दोहकालियं वा रोगातंक पाउणेज्जा, केवलीपण्णत्तानो वा धम्माम्रो भंसेज्जा। एक रात्रिकी भिक्षु-प्रतिभा का सम्यक् प्रकार से अनुपालन नहीं करने वाले अनगार के लिए तीन स्थान अहितकर, अशुभ, अक्षम, अनिःश्रेयसकारी और अनानुगामिता के कारण होते हैं-- 1. उक्त अनगार उन्माद को प्राप्त हो जाता है। 2. या दीर्घकालिक रोगातंक से ग्रसित हो जाता है। 3. अथवा केवलि-प्रज्ञप्त धर्म से भ्रष्ट हो जाता है (388) / ३८६-एगरातियं भिक्खुपडिमं सम्मं अणुपालेमाणस्स भणगारस्स तमो ठाणा हिताए सुभाए खमाए णिस्सेसाए प्राणुगामियत्ताए भवंति, तनहा-प्रोहिणाणे वा से समुप्पज्जेज्जा, मणपज्जवणाणे वा से समुप्पज्जेज्जा, केवलणाणे वा से समुष्पज्जेज्जा / / - एकरात्रिकी भिक्षु-प्रतिमा का सम्यक् प्रकार से अनुपालन करने वाले अनगार के लिए तीन स्थान हितकर शुभ, क्षम, निःश्र यसकारी और अनुगामिता के कारण होते हैं 1. उक्त अनगार को अवधिज्ञान उत्पन्न होता है / 2. या मनःपर्यवज्ञान प्राप्त होता है / 3. अथवा केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है (386) / कर्मभूमि-सूत्र __३६०-जंबुद्दीवे दीवे तो कम्मभूमीनो पण्णत्ताप्रो, तबहा--भरहे, एरवए, महाविदेहे। ३६१-एवं-धायइसंडे दीवे पुरित्मिमद्ध जाव पुक्खरवरदीवपच्चत्थिमद्ध। जम्बूद्वीप नामक द्वीप में तीन कर्मभूमियां कही गई हैं—भरत-कर्मभूमि, ऐरवत-कर्मभूमि और महाविदेह-कर्मभूमि (360) / इसी प्रकार धातकोखण्ड के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में, तथा अर्धपुष्कर वरद्वीप के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में भी तीन-तीन कर्मभूमियां जाननी चाहिए (361) / दर्शन-सूत्र ३६२-तिविहे दंसणे पण्णने, त जहा–सम्मइंसणे, मिच्छ सणे, सम्मामिच्छइंसणे। दर्शन तीन प्रकार का कहा गया है-सम्यग्दर्शन, मिथ्यादर्शन और सम्यग्मिथ्यादर्शन(३६२) / ३६३--तिविहा रुई पण्णत्ता, त जहा-सम्मरुई, मिच्छरई, समामिच्छरुई। रुचि तीन प्रकार की कही गई है-सम्यग् रुचि, मिथ्यारुचि और सम्यग्मिथ्यारुचि (363) / प्रयोग-सूत्र ___३९४–तिविधे पयोगे पण्णत्ते, त जहा सम्मयप्रोगे, मिच्छपनोगे, सम्मामिच्छपमोगे। प्रयोग तीन प्रकार का कहा गया है सम्यक् प्रयोग, मिथ्या प्रयोग और सम्यग्मिथ्याप्रयोग (364) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy