________________ तृतीय स्थान-तृतीय उद्देश ] [ 161 तीन स्थान निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों में लिए अहितकर, अशुभ, अक्षम (अयुक्त) अनिःश्रेयस (अकल्याणकर) अनानुगामिक, अमुक्तिकारी और अशुभानुबन्धी होते हैं 1. कूजनता–आर्तस्वर में करुण क्रन्दन करना। 2. कर्करणता-शय्या, उपधि आदि के दोष प्रकट करने के लिए प्रलाप करना। 3. अपध्यानता-आत और रोद्रध्यान करना (383) / ३८४----तम्रो ठाणा णिग्गंथाण वा निग्गयीण वा हिताए सुहाए खमाए णिस्सेसाए प्राणुगामिअत्ताए भवंति, तं जहा-प्रकप्रणता, अकक्करणता, अणवज्झाणता / तीन स्थान निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों के लिए हितकर, शुभ, क्षम, निःश्रेयस एवं प्रानुगामिता (मुक्ति-प्राप्ति) के लिए होते हैं 1. अकूजनता-प्रार्तस्वर से करुण क्रन्दन नहीं करना / 2. अकर्करणता-शय्या आदि के दोषों को प्रकट करने के लिए प्रलाप नहीं करना / 3. अनपध्यानता–मार्त-रौद्ररूप दुर्ध्यान नहीं करना (384) / शल्य-सूत्र ३८५-तनो सल्ला पण्णत्ता, त जहा-मायासल्ले, णियाणसल्ले, मिच्छादसणसल्ले / शल्य तीन हैं---मायाशल्य, निदान शल्य और मिथ्यादर्शन शल्य (385) / तेजोलेश्या-सूत्र ३८६-तिहिं ठाणेहि समणे णिग्गंथे संखित्त-विउलतेउलेस्से भवति, त जहा---प्रायावणयाए, खंतिखमाए, अपाणगेणं तवोकम्मेणं / तीन स्थानों से श्रमण निर्ग्रन्थ संक्षिप्त की हुई विपुल तेजोलेश्यावाले होते हैं१. आतापना लेने से--सूर्य की प्रचण्ड किरणों द्वारा उष्णता सहन करने से / 2. क्षान्ति-क्षमा धारण करने से बदला लेने के लिए समर्थ होते हुए भी क्रोध पर विजय पाने से। __ 3. अपानक तपःकर्म से-निर्जल-जल विना पीये तपश्चरण करने से (386) / भिक्षु-प्रतिमा-सूत्र ३८७--तिमासियं ण भिक्खुपडिम पडिवण्णस्स अणगारस्स कप्पंति तो दत्तीयो भोगणस्स पडिगाहेत्तए, तो पाणगस्स / त्रैमासिक भिक्षु-प्रतिमा को स्वीकार करने वाले अनगार के लिए तीन दत्तियां भोजन की और तीन दत्तियां पानक की ग्रहण करना कल्पता है (387) / ३८८-एगरातियं भिक्खुपडिमं सम्म अणणुपालेमाणस्स अणगारस्स इमे तो ठाणा अहिताए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org