________________ तृतीय स्थान-द्वितीय उद्देश ] [ 147 उसे विना किये ही प्राण, भूत, जीव, सत्त्व वेदना का वेदन करते हैं / ) उत्तर-आयुष्मन्त श्रमणो ! जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। किन्तु मैं ऐसा पाख्यान करता हूं, भाषण करता हूं, प्रज्ञापन करता हूं और प्ररूपण करता हूं कि ~ 1. दुःख कृत्य है-(प्रात्मा के द्वारा उपाजित किया जाता है।) 2. दुःख स्पृश्य है--(आत्मा से उसका स्पर्श होता है।) 3. दुःख क्रियमाण कृत है--(वह आत्मा के द्वारा किये जाने पर होता है / ) उसे करके ही प्राण, भूत, जीव, सत्त्व उसकी वेदना का बेदन करते हैं। ऐसा मेरा वक्तव्य है। विवेचन-आगम-साहित्य में अन्य दार्शनिकों या मत-मतान्तरों का उल्लेख 'अन्ययूथिक' या 'अन्यतीर्थिक' शब्द के द्वारा किया गया है। 'यूथिक' शब्द का अर्थ 'समुदाय वाला' और 'तीथिक' शब्द का अर्थ 'सम्प्रदाय वाला' है। यद्यपि प्रस्तुत सूत्र में किसी व्यक्ति या सम्प्रदाय का नाम-निर्देश नहीं है, तथापि बौद्ध-साहित्य से ज्ञात होता है कि जिस 'प्रकृततावाद' या 'अहेतुवाद' का निरूपण पूर्वपक्ष के रूप में किया गया है, उसके प्रवर्तक या समर्थक प्रकुध कात्यायन (पकुधकच्चायण) थे। उनका मन्तव्य था कि प्राणी जो भी सुख दुःख, या अदुःख-सुख का अनुभव करता है वह सब विना हेतु के या विना कारण के ही करता है। मनुष्य जो जीवहिंसा, मिथ्या-भाषण, पर-धन हरण, पर-दारासेवन आदि अनैतिक कार्य करता है, वह सब विना हेतु या कारण के ही करता है। उनके इस मन्तव्य के विषय में किसी शिष्य ने भगवान् महावीर से पूछा--भगवन् ! दुःख रूप क्रिया या कर्म क्या अहेतुक या अकारण ही होता है ? इसके उत्तर में भगवान् महावीर ने कहा-- सुख-दुःख रूप कोई भी कार्य अहेतुक या अकारण नहीं होता। जो अकारणक मानते हैं, वे मिथ्यादृष्टि हैं और उनका कथन मिथ्या है। प्रात्मा स्वयं कृत या उपार्जित एवं क्रियमाण कर्मों का कर्ता है और उनके सुख-दुःख रूप फल का भोक्ता है। सभी प्राणी, भूत, सत्त्व या जीव अपने किये हुए मोगते हैं। इस प्रकार भगवान महावीर ने प्रकध कात्यायन के मत का इस सूत्र में उल्लेख कर और उसका खण्डन करके अपना मन्तव्य प्रस्तुत किया है। / तृतीय स्थान का द्वितीय उद्देश समाप्त / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org