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________________ 146 ] [ स्थानाङ्गसूत्र आर्यो ! श्रमण भगवान महावीर ने गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थों को आमंत्रित कर कहा'आयुष्मन्त श्रमणो ! जीव किससे भय खाते हैं ?' गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थ भगवान् महावीर के समीप पाये, समीप आकर वन्दन नमस्कार किया। वन्दन नमस्कार कर इस प्रकार बोले देवानुप्रिय ! हम इस अर्थ को नहीं जान रहे हैं, नहीं देख रहे हैं। यदि देवानुप्रिय को इस अर्थ का परिकथन करने में कष्ट न हो, तो हम अाप देवानुप्रिय से इसे जानने की इच्छा करते हैं।' _ 'पार्यो !' श्रमण भगवान् महावीर ने गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थों को संबोधित करके कहा'आयुष्मन्त श्रमणो ! जीव दुःख से भय खाते हैं।' प्रश्न-तो भगवन् ! दुःख किसके द्वारा उत्पन्न किया गया है ? उत्तर—जीवों के द्वारा, अपने प्रमाद' से उत्पन्न किया गया है / प्रश्न-तो भगवन् ! दुःखों का वेदन (क्षय) कैसे किया जाता है ? उत्तर-जीवों के द्वारा, अपने ही अप्रमाद से किया जाता है। ३३७–अण्णउत्थिया णं भंते ! एवं प्राइक्खंति एवं भासंति एवं पण्णति एवं परूवेंति कहण्णं समणाणं णिग्गंथाणं किरिया कज्जति ? तत्थ जा सा कड़ा कज्जइ, णो तं पुच्छति / तत्थ जा सा कडा णो कज्जति, णो तं पृच्छति / तत्थ जा सा अकडा णो कज्जति, णो तं पुच्छंति / तत्थ जा सा अकडा कज्जति, णो तं पुच्छति / से एवं वत्तव्वं सिया? ___ अकिच्चं दुक्खं, प्रफुसं दुक्खं, अकज्जमाणकडं दुक्खं / अकटु-प्रकटु पाणा भूया जीवा सत्ता वेयणं वेदेतित्ति वत्तव्वं / जे ते एवमाहंसु, ते मिच्छा एवमासु / अहं पुण एवमाइक्खामि एवं भासामि एवं पण्णवेमि एवं परूवेमि-किच्चं दुक्खं, फुसं दुक्खं, कज्जमाणकडं दुक्खं / कट्ट-कटु पाणा भूया जीवा सत्ता वेषणं वेयंतित्ति वत्तव्वयं सिया। भदन्त ! कुछ अन्य यूथिक (दूसरे मत वाले) ऐसा पाख्यान करते हैं, ऐसा भाषण करते हैं, ऐसा प्रज्ञापन करते हैं, ऐसा प्ररूपण करते हैं कि जो क्रिया की जाती है, उसके विषय में श्रमण निर्गन्थों का क्या अभिमत है ? उनमें जो कृत क्रिया की जाती है, वे उसे नहीं पूछते हैं। उनमें जो कृत क्रिया नहीं की जाती है, वे उसे भी नहीं पूछते हैं। उनमें जो अकृत क्रिया नहीं की जाती है, वे उसे भी नहीं पूछते हैं। किन्तु जो अकृत क्रिया की जाती है, वे उसे पूछते हैं / उनका वक्तव्य इस प्रकार है 1. दुःखरूप कर्म (क्रिया) अकृत्य है (आत्मा के द्वारा नहीं किया जाता)। 2. दुःख अस्पृश्य है (प्रात्मा से उसका स्पर्श नहीं होता ) / 3. दुःख अक्रियमाण कृत है (वह आत्मा के द्वारा नहीं किये जाने पर होता है / ) 1. प्रमाद का अर्थ यहां पालस्य नहीं किन्तु अज्ञान, संशय, मिथ्याज्ञान, राग, द्वेष, मतिभ्रश, धर्म का प्राचरण न करना भोर योगों की अशुभ प्रवृति है / --संस्कृतटीका. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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