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________________ तृतीय स्थान-द्वितीय उद्देश ] [ 143 परिणति है। दूसरा व्यक्ति उसी कार्य को करते हुए विषाद का अनुभव करता है यह उसकी द्वेषपरिणति का सूचक है। तीसरा व्यक्ति उसी कार्य को करते हुए न हर्ष का अनुभव करता है और न विपाद का ही किन्तु मध्यस्थता का अनुभव करता है या मध्यस्थ रहता है। यह उसकी वीतरागता का द्योतक है। इस प्रकार संसारी जीवों की परिणति कभी रागमूलक और कभी द्वेष-मूलक होती रहती है। किन्तु जिनके हृदय में विवेक रूपी सूर्य का प्रकाश विद्यमान है उनकी परिणति सदा वीतरागभावमय हो रहती है। इसी बात को उक्त 126 सूत्रों के द्वारा विभिन्न क्रियाओं के माध्यम से बहुत स्पष्ट एवं सरल शब्दों में व्यक्त किया गया है / गहित-स्थान-सूत्र ___315 - तम्रो ठाणा णिस्सीलस्स णिगुणस्स जिम्मेरस्स णिप्पच्चक्खाणपोसहोववासस्स गरहिता भवंति, तं जहा--अस्सि लोगे गरहिते भवति, उववाते गरहिते भवति, पायाती गरहिता भवति / ___ शील-रहित, व्रत-रहित, मर्यादा-हीन एवं प्रत्याख्यान तथा पोषधोपवास-विहीन पुरुष के तीन स्थान गहित होते हैं-इहलोक (वर्तमान भव) गहित होता है। उपपात (देव और नारक जन्म) गर्हित होता है। (क्योंकि अकामनिर्जरा अादि किसी कारण से देवभव पाकर भी वह किल्विषिक जैसे निद्य देवों में उत्पन्न होता है / ) तथा आगामी जन्म (देव या नरक के पश्चात् होने वाला मनुष्य या तिर्यंचभव) भी गर्हित होता है-वहां भी उसे अधोदशा प्राप्त होती है। प्रशस्त-स्थान-सूत्र ३१६–तम्रो ठाणा सुसीलस्स सुव्वयस्स सगुणस्स समेरस्स सपच्चक्खाणपोसहोववासस्स पसत्था भवं भवंति, तं जहा-अस्सि लोगे पसत्थे भवति, उववाए पसत्थे भवति, प्रजाती पसत्था भवति / ___ सुशील, सुव्रती, सद्-गुणी, मर्यादा-युक्त एवं प्रत्याख्यान-पोषधोपवास से युक्त पुरुष के तीन स्थान प्रशस्त होते हैं-इहलोक प्रशस्त होता है, उपपात प्रशस्त होता है एवं उससे भी आगे का जन्म प्रशस्त होता है। जीव-सूत्र ३१७--तिविधा संसारसमावण्णगा जोवा पण्णता, तं जहा- इत्थी, पुरिसा णसगा। ३१८–तिविहा सव्वजोवा पण्णत्ता, तं जहा—सम्मट्ठिी, मिच्छाद्दिट्ठी, सम्मामिच्छद्दिट्ठी / अहवातिविहा सदजीवा पण्णता, तं जहा—पज्जत्तगा, अपज्जत्तगा, णोपज्जत्तगा-गोऽपज्जत्तगा एवं सम्मविट्ठी-परित्ता-पज्जत्तग-सुहम-सनि भविया य [परित्ता, अपरित्ता, णोपरित्ता-णोऽपरित्ता / सुहमा, बायरा, णोसुहमा-जोबायरा / सण्णी, असण्णी, पोसण्णी-णोअसण्णी। भवी, अभवी, णोभवी-णोऽभवी]। ____ संसारी जीव तीन प्रकार के कहे गये हैं-स्त्री, पुरुष और नपुसंक (317) / अथवा सर्व जीव तीन प्रकार के कहे गये हैं-सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि / अथवा सर्व जीव तीन प्रकार के कहे गये हैं- पर्याप्त, अपर्याप्त एवं न पर्याप्त और न अपर्याप्त (सिद्ध) (318) / इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि, परीत, अपरीत, नोपरीत नोग्रपरीत, सूक्ष्म, बादर, नोसूक्ष्म नोबादर, संज्ञी, असंज्ञी, नो संज्ञी नो असंज्ञी, भव्य, अभव्य, नो भव्य नो अभव्य भी जानना चाहिए। तथा सर्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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