________________ तृतीय स्थान-प्रथम उद्देश ] [ 117 कोट्टाउत्ताणं पल्लाउत्ताणं मंचाउत्ताणं मालाउत्ताणं प्रोलित्ताणं लिताणं लंछियाणं मुहियाणं पिहिताणं केवइयं कालं जोणी संचिट्ठति ? जहणणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेणं तिणि संवच्छराई। तेण परं जोणी पमिलायति / तेण परं जोणी पविद्ध सति / तेण परं जोणी विद्ध सति / तेण परं बीए अबीए भवति / तेण परं जोणीबोच्छेदे पण्णत्ते। हे भगवन् ! शालि, ब्रीहि, गेहूं, जौ और यवयव (जौ विशेष) इन धान्यों की कोठे में सुरक्षित रखने पर, पल्य (धान्य भरने के पात्र-विशेष) में सुरिक्षत रखने पर, मचान और माले में डालकर, उनके द्वार-देश को ढक्कन ढक देने पर, उसे लीप देने पर, सर्व अोर से लीप देने पर, रेखादि से चिह्नित कर देने पर, मुद्रा (मोहर) लगा देने पर, अच्छी तरह बन्द रखने पर उनकी योनि (उत्पादक शक्ति) कितने काल तक रहती है ? (हे आयुष्मन्) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन वर्ष तक उनकी योनि रहती है / तत्पश्चात् योनि म्लान हो जाती है, तत्पश्चात् योनि विध्वस्त हो जाती है, तत्पश्चात् योनि विनष्ट हो जाती है, तत्पश्चात् बीज अबीज हो जाता है, तत्पश्चात् योनि का विच्छेद हो जाता है, अर्थात् वे बोने पर उगने योग्य नहीं रहते (125) / नरक-सूत्र १२६--दोच्चाए णं सक्करप्पभाए पुढवीए रइयाणं उक्कोसेणं तिणि सागरोबमाइं ठिती पण्णत्ता। १२७-तच्चाए णं वालुयप्पभाए पुढवीए जहाणेणं रइयाणं तिणि सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता / १२८-पंचमाए णं धूमप्पभाए पुढवीए तिष्णि गिरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता / १२६-तिसु णं पुढवीसु रइयाणं उसिणवेयणा पण्णत्ता, त जहा—पढमाए, दोच्चाए, तच्चाए। १३०–तिसु णं पुढवीसु रइया उसिणवेयणं पच्चणुभवमाणा विहरंति, त जहा-पढमाए, दोच्चाए, तच्चाए / दूसरी शर्कराप्रभा पृथ्वी में नारकों को उत्कृष्ट स्थिति तीन सागरोपम कही गई है (126) / तीसरी बालुकाप्रभा पृथ्वी में नारकों की जघन्य स्थिति तीन सागरोपम कही गई है (127) / पांचवीं धूमप्रभा पृथ्वी में तीन लाख नरकावास कहे गये हैं (128) / आदि की तीन पृथिवियों में नारकों के उष्ण वेदना कही गई है (126) / प्रथम, द्वितीय और तृतीय इन तीन पृथिवियों में नारक जीव उष्ण वेदना का अनुभव करते रहते हैं (130) / सम-सूत्र १३१---तओ लोगे समा सक्खि सपडिदिसि पण्णता, त जहा-अप्पइट्ठाणे णरए, जंबुद्दीवे दोवे, सव्वट्ठसिद्ध विमाणे। लोक में तीन समान (प्रमाण की दृष्टि से एक लाख योजन विस्तीर्ण) सपक्ष (समश्रेणी की दृष्टि से उत्तर-दक्षिण समान पार्श्व वाले) और सप्रतिदिश (विदिशाओं में समान) कहे गये हैंसातवीं पृथ्वी का अप्रतिष्ठान नामक नारकावास, जम्बूद्वीपनामक द्वीप और सर्वार्थ सिद्धनामक अनुत्तर विमान (131) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org