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________________ तृतीय स्थान प्रथम उद्देश ] नहीं हो सकता / हे आयुष्मान् श्रमणो ! वह उसके उपकार से तभी उऋण हो सकता है जबकि उसे संबोधित कर, धर्म का स्वरूप और उसके भेद-प्रभेद बताकर केवलि-प्रज्ञप्त धर्म में स्थापित करता है। 3. कोई व्यक्ति तथारूप श्रमण माहन के (धर्माचार्य के) पास एक भी आर्य धार्मिक सुवचन सुनकर, हृदय में धारण कर मृत्युकाल में भरकर, किसी देवलोक में देव रूप से उत्पन्न होता है। किसी समय वह देव अपने धर्माचार्य को दुभिक्ष वाले देश से सुभिक्ष वाले देश में लाकर रख दे, जंगल से बस्ती में ले पावे, या दीर्घकालीन रोगातङ्क से पीड़ित होने पर उन्हें उससे विमुक्त कर दे, तो भी वह देव उस धर्माचार्य के उपकार से उऋण नहीं हो सकता है। हे आयुष्मान् श्रमणो! वह उनसे तभी उऋण हो सकता है जब कदाचित् उस धर्माचार्य के केवलि-प्रज्ञप्त धर्म से भ्रष्ट हो जाने पर उसे संबोधित कर, धर्मका स्वरूप और उसके भेद-प्रभेद बताकर केवलि-प्रज्ञप्त धर्म में स्थापित करता है। विवेचन-टीकाकार अभयदेवसूरि ने शतपाक के चार अर्थ किये हैं--१. सौ औषधियों के क्वाथ से पकाया गया, 2. सौ औषधियों के साथ पकाया गया, 3. सौ वार पकाया गया और 4. सौ रुपयों के मूल्य से पकाया गया तेल / इसी प्रकार सहस्रपाक तेल के चार अर्थ किये हैं। स्थालीपाक का अर्थ है-हांडी,कुडी या वटलोई, भगौनी आदि में पकाया गया भोजन / सूत्र-पठित अष्टादश पद को उपलक्षण मानकर जितने भी खान-पान के प्रकार हो सकते हैं, उन सबको यहाँ इस पद से ग्रहण करना चाहिए। व्यतिवजन-सूत्र ८८–तिहि ठाणेहं संपण्णे अणगारे अणादीयं प्रणवदग्गं दोहमद्ध चाउरंत-संसारकंतारं वीईवएज्जा, तं जहा-प्रणिदाणयाए, दिद्विसंपण्णयाए, जोगवाहियाए / तीन स्थानों से सम्पन्न अनगार (साधु) इस अनादि-अनन्त, अतिविस्तीर्ण चातुर्गतिक संसार कान्तार से पार हो जाता है—अनिदानता से (भोग-प्राप्ति के लिए निदान नहीं करने से) दृष्टिसम्पन्नता से (सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से) और योगवाहिता से (88) / विवेचन–अभयदेव सूरिने योगवाहिता के दो अर्थ किये हैं.-१. श्र तोफ्धानकारिता, अर्थात् शास्त्राभ्यास के लिए आवश्यक अल्पनिद्रा लेना, अल्प भोजन करना, मित-भाषण करना, विकथा, हास्यादि का त्याग करना / 2. समाधिस्थायिता अर्थात् काम-क्रोध आदि का त्याग कर चित्त में शांति और समाधि रखना। इस प्रकार की योगवाहिता के साथ निदान-रहित एवं सम्यक्त्व सम्पन्न साधु इस अनादि-अनन्त संसार से पार हो जाता है। कालचक्र-सूत्र ८९—तिविहा ओसप्पिणी पण्णत्ता, तं जहा--उक्कोसा, मज्झिमा, जहण्णा / 80---एवं छप्पि समारो भाणियवाओ, जाव दूसमदूसमा [तिविहा सुसम-सुसमा, तिविहा सुसमा, तिविहा सुसम-दूसमा, तिविहा दूसम-सुसमा, तिबिहा दुसमा, तिविहा दूसम-दूसमा पण्णता, त जहाउक्कोसा, मज्झिमा, जहण्णा] / ६१—तिविहा उस्सप्पिणी पण्णत्ता, तं जहा-उक्कोसा, मज्झिमा, जहण्णा / १२–एवं छप्पि समारो भाणियब्वायो [तिविहा दुस्सम-दुस्समा, तिविहा दुस्समा, तिविहा दुस्सम-सुसमा, तिविहा सुसम-दुस्समा, तिविहा सुसमा, तिविहा सुसम-सुसमा पण्णत्ता, त जहाउक्कोसा, मज्झिमा, जहण्णा] / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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