________________ [ स्थानाङ्गसूत्रे गंधट्टएणं उधट्टित्ता, तिहि उदगेहि मज्जावेत्ता, सव्वालंकारविभूसियं करेत्ता, मणुण्णं थालीपागसुद्ध प्रहारसवंजणाउलं भोयणं भोयावेत्ता जावज्जीवं पिट्ठिवडेंसियाए परिवहेज्जा, तेणावि तस्स अम्मापि उस्स दुप्पडियारं भवइ / अहे णं से तं अम्मापियरं केवलिपण्णत्ते धम्मे प्राघवइत्ता पण्णवइत्ता परूवइत्ता ठावइत्ता भवति, तेणामेव तस्स अम्मापिउस्स सप्पडियारं भवति समणाउसो! 2. केइ महच्चे दरिदं समुक्कसेज्जा। तए णं से दरिद्दे समुक्किट्ठ समाणे पच्छा पुरं च णं विउलभोगसमितिसमण्णागते यावि विहरेज्जा। तए णं से महच्चे अण्णया कयाइ दरिद्दीहूए समाणे तस्स दरिहस्स अंतिए हव्वमागच्छेज्जा। तए णं से दरिद्दे तस्स भट्टिस्स सव्वस्समविदलयमाणे तेणावि तस्स दुप्पडियारं भवति / अहे णं से तं भट्टि केवलिपण्णत्ते धम्मे प्राघवइत्ता पण्णवइत्ता परूवइत्ता ठावइत्ता भवति, तेणामेव तस्स भट्टिस्स सुप्पडियारं भवति [समणाउसो ! ?] / 3. केइ तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि पारियं धम्मियं सुक्यणं सोच्चा णिसम्म कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववण्णे। तए णं से देवे तं धम्मारियं दुभिक्खायो वा देसाप्रो सुभिक्खं देसं साहरेज्जा, कंताराप्रो वा णिकतारं करेज्जा, दोहकालिएणं वा रोगातंकेणं अभिभूतं ससाणं विमोएज्जा, तेणावि तस्स धम्माय. रियस्स दुप्पडियारं भवति / अहे णं से तं धम्मायरियं केवलिपण्णत्तानो धम्मालो भट्ट समाणं भुज्जीवि केवलिपण्णत्ते धम्मे प्राघवइत्ता पण्णवइत्ता परूवइत्ता छावइत्ता भवति, तेणामेव तस्स धम्मायरियस्स सुप्पडियारं भवति [समणाउसो ! ?] / हे आयुष्मान् श्रमणो ! ये तीन दुष्प्रतीकार हैं- इनसे उऋण होना दुःशक्य है--माता-पिता, भर्ता (पालन-पोषण करने वाला स्वामी) और धर्माचार्य / 1. कोई पुरुष (पुत्र) अपने माता-पिता का प्रातःकाल होते ही शतपाक और सहस्रपाक तेलों से मर्दन कर, सुगन्धित चूर्ण से उबटन कर, सुगन्धित जल, शीतल जल एवं उष्ण जल से स्नान कराकर, सर्व अलंकारों से उन्हें विभूषित कर, अठारह प्रकार के स्थाली-पाक शुद्ध व्यंजनों से युक्त भोजन कराकर, जीवन-पर्यन्त पृष्ठ्यवतंसिका से (पीठ पर बैठाकर, या कावड़ में बिठाकर कन्धे से) उनका परिवहन करे, तो भी वह उनके (माता-पिता के) उपकारों से उऋण नहीं हो सकता। हे आयुष्मान् श्रमणो ! वह उनसे तभी उऋण हो सकता है जब कि उन माता-पिता को संबोधित कर, धर्म का स्वरूप और उसके भेद-प्रभेद बताकर केवलि-प्रज्ञप्त धर्म में स्थापित करता है। 2. कोई धनिक व्यक्ति किसी दरिद्र पुरुष का धनादि से समुत्कर्ष करता है। संयोगवश कुछ समय के बाद या शीघ्र ही वह दरिद्र, विपुल भोग-सामग्री से सम्पन्न हो जाता है और वह उपकारक धनिक व्यक्ति किसी समय दरिद्र होकर सहायता की इच्छा से उसके समीप पाता है। उस समय वह भूतपूर्व दरिद्र अपने पहले वाले स्वामी को सब कुछ अर्पण करके भी उसके उपकारों से उऋण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org