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________________ 74] [स्थानाङ्गसूत्र सौवस्तिक, दो वर्धमानक, दो प्रलम्ब, दो नित्यालोक, दो नित्योद्योत, दो स्वयम्प्रभ, दो अवभास, दो श्रेयस्कर, दो क्षेमंकर, दो आभंकर, दो प्रभंकर, दो अपराजित, दो अजरस, दो अशोक, दो विगतशोक, दो विमल, दो वितत, दो वित्रस्त, दो विशाल, दो शाल, दो सुव्रत, दो अनिवृत्ति, दो एकजटिन, दो जटिन्, दो करकरिक, दो दोराजार्गल, दो पुष्पकेतु, दो भावकेतु, इन 88 महाग्रहों ने चार (संचरण) किया था, चार करते हैं और चार करेंगे। जम्बूद्वीप-वेदिका-पद ३२६-जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स वेइया दो गाउयाई उट्ट उच्चत्तेणं पण्णता। जम्बूदीप नामक द्वीप की वेदिका दो कोश ऊंची कही गई है। लवण-समुद्र-पद ३२७--लवणे गं समुद्दे दो जोयणसयसहस्साई चक्कवाल विक्खंभेणं पण्णत्ते / ३२८-लवणस्स णं समुद्दस्स वेइया दो गाउयाई उड्डे उच्चत्तेणं पण्णत्ता। ___ लवण समुद्र का चक्रवाल विष्कम्भ (वलयाकार विस्तार) दो लाख योजन कहा गया है (327) / लवण समुद्र की वेदिका दो कोश ऊंची कही गई है (328) / धातकीषण्ड-पद ३२६-धायइसंडे दीवे पुरथिमद्धे णं मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर-दाहिणे णं दो वासा पण्णत्ताबहुसमतुल्ला जाव त जहा-भरहे चे व, एरवए चेव / धातकीषण्ड द्वीप के पर्वार्ध में मन्दर पर्वत के उत्तर-दक्षिण में दो क्षेत्र कहे गये है-दक्षिण में भरत और उत्तर में ऐरवत / वे दोनों क्षेत्र-प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा सदृश हैं, यावत् आयाम, विष्कम्भ, संस्थान और परिधि की अपेक्षा एक दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते हैं। ३३०-एवं-जहा जंबुद्दीवे तहा एत्थवि भाणियव्वं जाव दोसु वासेसु मणुया छविहंपि कालं पच्चणुभवमाणा विहरंति, त जहा-भरहे चेब, एरवए चेव, गवरं-कूडसामली चेव, धायईरुक्खे च / देवा-गरुले चे व वेणुदेवे, सुदंसणे चे व।। इसी प्रकार जैसा जम्बू द्वीप के प्रकरण में वर्णन किया गया है, वैसा ही यहाँ पर भी कहना चाहिए, यावत् भरत और ऐरवत इन दोनों क्षेत्रों में मनुष्य छहों ही कालों के अनुभाव को अनुभव करते हुए विचरते हैं / विशेष इतना है कि यहाँ वृक्ष दो हैं-कूटशाल्मली और धातकी वृक्ष / कूटशाल्मली वृक्ष पर गरुडकुमार जाति का वेणुदेव और धातकी वृक्ष पर सुदर्शन देव रहता है / ३३१-धायइसंडे दीवे पच्चत्थिमद्ध णं मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर-दाहिणे णं दो वासा पण्णत्ता बहुसमतुल्ला जाव त जहा-भरहे चे व, एरवए चेव / धातकोषण्ड द्वीप के पश्चिमार्ध में मन्दर पर्वत के उत्तर-दक्षिण में दो क्षेत्र कहे गये हैं-दक्षिण में भरत और उत्तर में ऐरवत / वे दोनों क्षेत्र प्रमाण की दृष्टि से सर्वथा सदृश हैं, यावत् आयाम, विष्कम्भ, संस्थान और परिधि की अपेक्षा एक दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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