SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय स्थान–प्रथम उद्देश ] 35 उन्माद-पद ७५-दुविहे उम्माए पण्णत्ते, त जहा–जक्खाएसे चेव, मोहणिज्जस्स चेव कम्मस्स उदएणं / _ तत्थ णं जे से जक्खाएसे, से णं सुहवेयतराए चेव, सुहविमोयतराए चेव। तत्थ णं जे से मोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं, से णं दुहवेयतराए चेव, दुहविमोयतराए चेव / उन्माद अर्थात् बुद्धिभ्रम या बुद्धि की विपरीतता दो प्रकार की कही गई है-यक्षावेश से (यक्ष के शरीर में प्रविष्ट होने से) और मोहनीय कर्म के उदय से / इनमें जो यक्षावेश जनित उन्माद है, वह मोहनीय कर्म-जनित उन्माद की अपेक्षा सुख से भोगा जाने वाला और सुख से छूट सकने वाला होता है। किन्तु जो मोहनीय-कर्म-जनित उन्माद है, वह यक्षावेश जनित उन्माद की अपेक्षा दुःख से भोगा जाने वाला और दुःख से छूटने वाला होता है (75) / दण्ड-पद __ ७६-दो दंडा पण्णत्ता, तजहा-अट्रादंडे चव, अणट्रादंडे चव। ७७--जेरइयाणं दो दंडा पण्णत्ता, त जहा–प्रहादंडे य, अणट्ठादंडे य / ७८-एवं-चउवीसावंडपो जाव वेमाणियाणं / दर्शन-पद ___दण्ड दो प्रकार का कहा गया है—अर्थदण्ड सप्रयोजन (प्राणातिपातादि) और अनर्थदण्ड (निष्प्रयोजन प्राणातिपातादि) (76) / नारकियों में दोनों प्रकार के दण्ड कहे गये हैं अर्थदण्ड और अनर्थदण्ड (77) / इसी प्रकार वैमानिक तक के सभी दण्डकों में दो-दो दण्ड जानना चाहिए (78) / ७६-दुविहे दंसणे पणत्ते, तजहा–सम्मइंसणे चे व, मिच्छादसणे व / ८०-सम्मइंसणे दुविहे पण्णत्ते, त जहा-णिसग्गसम्म हसणे चव, अभिगमसम्म हसणे चव। ८१-णिसग्गसम्मईसणे दुविहे पण्णत्ते, त जहा-पडिवाइ चव, अपडिवाइ चव / ८२–अभिगमसम्मइंसणे दुविहे पण्णते, त जहा–पडिवाइ चव, अपडिवाइ चव / ८३–मिच्छादसणे विहे पण्णत्ते, त जहा-अभिग्गहियमिच्छादसणे चव, अभिग्गहियमिच्छादसणे चव। ८४-अभिग्गहियमिच्छादसणे दुविहे पण्णते, तं जहा-सपज्जवसिते चे व, अपज्जवसिते चव / ८५-[अणभिग्गहियमिच्छादसणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सपज्जवसिते चेव, अपज्जवसिते च व] / दर्शन (श्रद्धा या रुचि) दो प्रकार का कहा गया है--सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन (79) / सम्यग्दर्शन दो प्रकार का कहा गया है—निसर्गसम्यग्दर्शन (अन्तरंग में दर्शनमोह का उपशमादि होने पर किसी बाह्य निमित्त के बिना स्वतः स्वभाव से उत्पन्न होने वाला) और अधिगम सम्यग्दर्शन (अन्तरंग में दर्शनमोह का उपशमादि होने और बाह्य में गुरु-उपदेश आदि के निमित्त से उत्पन्न होने वाला) (80) / निसर्ग सम्यग्दर्शन दो प्रकार का कहा गया है-प्रतिपाती (नष्ट हो जाने वाला औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन) और अप्रतिपाती (नहीं नष्ट होने वाला क्षायिकसम्यक्त्व (81) / अधिगम-सम्यग्दर्शन भी दो प्रकार का कहा गया है-प्रतिपाती और अप्रतिपाती (82) / मिथ्यादर्शन दो प्रकार का कहा गया है--आभिग्रहिक (इस भव में ग्रहण किया गया मिथ्यात्व) और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy