________________ 34 ] [ स्थानाङ्गसूत्र दो स्थानों को जानकर और त्यागकर प्रात्मा विशुद्ध मनःपर्यवज्ञान को उत्पन्न करता है (61) प्रारम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों को जानकर और त्यागकर आत्मा विशुद्ध केवलज्ञान को उत्पन्न करता है (62) / श्रवण समधिगमपद ६३--दोहि ठाणेहि पाया केवलिपण्णत्तं धम्म लभेज्ज सवणयाए, त जहा-सोच्चच्चेव, अभिसमेच्चच्चेव / ६४-दोहि ठाणेहि प्राया केवलं बोधि बुज्झज्जा, त जहा-सोच्चच्चेव, अभिसमेच्चच्चेव। ६५-दोहि ठाणेहि पाया केवलं मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्वइज्जा, तं जहा-सोच्चच्चेव, अभिसमेच्चच्चेव / ६६-दोहि ठाणेहिं पाया केवलं बंभचेरवासमावसेज्जा, त जहा-सोच्चच्चेव, अभिसमेच्चच्चेव / ६७—दोहि ठाणेहि पाया केवलं संजमेणं संजमेज्जा, त जहा-सोच्चच्चेव, अभिसमेच्चच्चेव / ६८-दोहि ठाणेहिं आया केवलं संवरेणं संवरेज्जा, त जहा-- सोच्चच्चेव, अभिसमेच्चच्चेव / ६६—दोहि ठाणेहिं आया केवलमाभिणिबोहियणाणं उप्पाडेज्जा, त जहा सोच्चच्चेव, अभिसमेच्चच्चेव / ७०-दोहि ठाणेहिं पाया केवलं सुयणाणं उप्पाडेज्जा, तं जहा-- सोच्चच्चेव, अभिसमेच्चच्चेव। ७१-दोहि ठाणेहि पाया केवलं प्रोहिणाणं उप्पाडेज्जा, तजहासोच्चच्चेव, अभिसमेच्चच्चेव / ७२–दोहि ठाणेहिं प्राया केवलं मणपज्जवणाणं उभ्याडेज्जा, त जहासोच्चच्चेव, अभिसमेच्चच्चेव / ७३–दोहि ठाणेहि धाया केवलं केवलणाणं उप्पाडेजा, त जहासोच्चच्चेव, अभिसमेच्चच्चेव / धर्म की उपादेयता सुनने और उसे जानने, इन दो स्थानों (कारणों) से आत्मा केवलिप्रज्ञप्त धर्म को सुन पाता है (63) / सुनने और जानने- इन दो स्थानों से प्रात्मा विशुद्ध बोधि का अनुभव करता है (64) / सुनने और जाननेइन दो स्थानों से आत्मा मुण्डित होकर और घर का त्याग कर सम्पूर्ण अनगारिता को पाता है (65) / सुनने और जानने-इन दो स्थानों से प्रात्मा सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य-वास को प्राप्त करता है (66) / सुनने और जानने-इन दो स्थानों से आत्मा सम्पूर्ण संयम से संयुक्त होता है (67) / सुनने और जानने-इन दो स्थानों से आत्मा सम्पूर्ण संवर से संवत होता है (68) 1 सुनने और जानने---इन दो स्थानों से प्रात्मा विशुद्ध आभिनिबोधिक ज्ञान को उत्पन्न करता है (66) / सुनने और जानने-इन दो स्थानों से आत्मा विशुद्ध अ तज्ञान को उत्पन्न करता है (70) / सुनने और जानने-इन दो स्थानों से आत्मा विशुद्ध अवधिज्ञान को उत्पन्न करता है (71) / सुनने और जानने-इन दो स्थानों से आत्मा विशुद्ध मनःपर्यवज्ञान को उत्पन्न करता है (72) / सुनने और जानने - इन दो स्थानों से प्रात्मा विशुद्ध केवलज्ञान को उत्पन्न करता है (73) / समा (काल चक्र)-पद 74 - दो समानो पण्णत्तानो, त जहा- प्रोसप्पिणी समा चेव, उस्सप्पिणी समा चेव / दो समा कही गई हैं--प्रवसर्पिणी समा-इसमें वस्तुओं के रूप, रस, गन्ध आदि का एवं जीवों की आयु, बल, बुद्धि, सुख प्रादि का क्रम से ह्रास होता है। उत्सर्पिणी समा—इसमें वस्तुओं के रूप, रस, गन्ध आदि का एवं जीवों की आयु, बल, बुद्धि, सुख प्रादि का क्रम से विकास होता है (74) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org