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________________ [ स्थानाङ्गसूत्र अनाभिग्रहिक (पूर्व भवों से आने वाला मिथ्यात्व) (83) / आभिग्रहिक मिथ्यादर्शन दो प्रकार का कहा गया है-सपर्यवसित (सान्त) और अपर्यवसित (अनन्त) (84) / अनाभिग्रहिक मिथ्यादर्शन दो प्रकार का कहा गया है-सपर्यवसित और अपर्यवसित (85) / विवेचन-यहाँ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि भव्य का दोनों प्रकार का मिथ्यादर्शन सान्त होता है, क्योंकि वह सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर छूट जाता है। किन्तु अभव्य का अनन्त है, क्योंकि वह कभी नहीं छूटता है / ज्ञान-पद ८६-दुविहे गाणे पण्णत्त, तं जहा-पच्चक्खे चव, परोक्खे च छ / ८७--पच्चरखे गाणे दुविहे पण्णत्त, त जहा-केवलणाणे चे व, णोकेवलणाणे चव। 88 केवलणाणे दुविहे पण्णत्ते , त जहा-भवत्थकेवलणाणे चेब, सिद्ध केवलणाणे चव। ८६-भवत्थ केवलणाणे दुविहे पण्णत्त, तं जहासजोगिभवत्थकेवलणाणे चव, प्रजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव / ६०-सजोगिभवत्थकेवलणाणे दुविहे पण्णत्त, त जहा–पढमसमयसजोगिभवत्थकेवलणाणे चव, अपढमसमयसजोगिभवत्यकेवलणाणे चेव / अहवा-चरिमसमयसजोगिभवत्थकेवलणाणे चव, प्रचरिमसमयसजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव / ९१-[प्रजोगिभवत्थकेवलणाणे दुविहे पण्णते, त जहा--पढमसमयमजोगिभक्त्यकेवलणाणे वेव, अपढमसमयप्रजोगिभवत्थकेवलणाणे चव। अहवा-चरिमसमयअजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव, प्रचरिमसमयप्रजोगिमवत्थकेवलणाणे चव] / १२-सिद्धकेवलणाणे दुविहे पणत्ते, त जहाअणंतरसिद्ध केवलणाणे चे व, परंपरसिद्ध केवलणाणे चेव / ६३-अणंतरसिद्ध केवलणाणे दुविहे पण्णते, त जहा---एक्काणंतरसिद्धकेवलणाणे चव, प्रणेक्काणंतरसिद्धकेवलणाणे चव। ६४-परंपरसिद्धकेवलणाणे दुविहे पण्णते, तं जहा-एक्कपरंपरसिद्धकेवलणाणे चेव, अणेक्कपरंपरसिद्ध केवलणाणे चेव / ज्ञान दो प्रकार का कहा गया है-प्रत्यक्ष-(इन्द्रियादि की सहायता के बिना पदार्थों को जानने वाला ज्ञान)। तथा परोक्ष (इन्द्रियादि की सहायता से पदार्थों को जानने वाला ज्ञान) (86) / प्रत्यक्ष ज्ञान दो प्रकार का कहा गया है केवलज्ञान और नोकेवलज्ञान (केवलज्ञान से भिन्न) (87) / केवलज्ञान दो प्रकार का कहा गया है- भवस्थ केवलज्ञान (मनुष्य भव में स्थित अरिहन्तों का ज्ञान) और सिद्ध केवलज्ञान (मुक्तात्माओं का ज्ञान) (88) / भवस्थ केवलज्ञान दो प्रकार का कहा गया है- सयोगिभवस्थ केवलज्ञान (तेरहवें गुणस्थानवर्ती अरिहन्तों का ज्ञान) और अयोगिभवस्थ केवलज्ञान (चौदहवें गुणस्थानवर्ती अरिहन्तों का ज्ञान) (86) / सयोगिभवस्थ केवलज्ञान दो प्रकार का कहा गया है-प्रथम समयसयोगि-भवस्थ केवलज्ञान और अप्रथम समयसयोगि भवस्थ केवलज्ञान / अथवा-चरम समय सयोगिभवस्थ केवलज्ञान और अचरम समय भवस्थ केवलज्ञान (60) / अयोगिभवस्थ केवलज्ञान दो प्रकार का कहा गया है-प्रथम समय अयोगिभवस्थ केवलज्ञान और अप्रथम समय अयोगिभवस्थ केवलज्ञान / अथवा चरमसमय अयोगिभवस्थ केवलज्ञान और अचरम समय अयोगिभवस्थ केवलज्ञान (61) / सिद्ध केवलज्ञान दो प्रकार का कहा गया है--अनन्तरसिद्ध केवलज्ञान (प्रथम समय के मुक्त सिद्धों का ज्ञान) और परम्परसिद्ध केवलज्ञान (जिन्हें सिद्ध हुए एक समय से अधिक काल हो चुका है ऐसे सिद्ध जीवों का ज्ञान) (62) / अनन्तरसिद्ध केवलज्ञान दो प्रकार का कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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