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स्कन्धनिरूपण
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[७३] आवश्यक के अधिकारों के नाम इस प्रकार हैं
(गाथार्थ) १. सावद्ययोगविरति, २. उत्कीर्तन, ३. गुणवत्प्रतिपत्ति, ४. स्खलितनिन्दा, ५. व्रणचिकित्सा और ६. गुणधारणा।
विवेचनयहां आवश्यक के छह अर्थाधिकारों के नाम बताये हैं। ये अर्थाधिकार इसलिए हैं कि आवश्यक की साधना, आराधना द्वारा जो उपलब्धि होती है अथवा जो करणीय है उसका बोध इनके द्वारा होता है। स्पष्टीकरण इस प्रकार है
सावद्ययोगविरति— हिंसा, असत्य आदि सावध योगों का त्याग करना । अर्थात् हिंसा आदि निन्दनीय कार्यों से विरत होना अथवा हिंसा आदि के कारण होने वाली मलिन मानसिक आदि वृत्तियों के प्रति उन्मुख न होना सावद्ययोगविरति (सामायिक) अर्थाधिकार है।
उत्कीर्तन- सावद्ययोग की विरति से जो स्वयं सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए एवं दूसरों को भी आत्मशुद्धि के लिए इसी सावधयोग-प्रवृत्ति के त्याग का जिन्होंने उपदेश दिया ऐसे उपकारियों के गुणों की स्तुति करना उत्कीर्तन (चतुर्विंशतिस्तव) अर्थाधिकार है।
__ गुणवत्प्रतिपत्ति- सावद्ययोगविरति की साधना में तत्पर गुणवान् अर्थात् मूल एवं उत्तर गुणों के धारक संयमी निर्ग्रन्थ श्रमणवर्ग की प्रतिपत्ति—आदर-सम्मान करना गुणवत्प्रतिपत्ति (वंदना) अर्थाधिकार है।
स्खलितनिन्दा- संयमसाधना करते हुए प्रमादवश होने वाली स्खलना—अतिचार—दोष की शुद्ध बुद्धि से संवेगभावनापूर्वक निन्दा गर्दा करना स्खलितनिन्दा (प्रतिक्रमण) अर्थाधिकार है।
व्रणचिकित्सा स्वीकृत साधना में कायोत्सर्ग करके शरीर पर ममत्व-रागभाव त्याग करके अतिचारजन्य भावव्रण (घाव-दोष) का प्रायश्चित्त रूप औषधोपचार द्वारा निराकरण करना व्रणचिकित्सा (कायोत्सर्ग) अर्थाधिकार
गुणधारणा– प्रायश्चित्त द्वारा दोषों का प्रमार्जन करके मूल और उत्तर गुणों को अतिचार रहित—निर्दोष धारण—पालन करना गुणधारणा (प्रत्याख्यान) अर्थाधिकार है।
गाथोक्त 'च' और 'एव' शब्दों द्वारा यह स्पष्ट किया है कि मूल में आवश्यक के यही छह अर्थाधिकार हैं और इनसे सम्बन्धित आचार-विचार आदि सभी का इन्हीं में समावेश हो जाता है। ७४. आवस्सगस्स एसो पिंडत्थो वण्णितो समासेणं ।
एत्तो एक्केक्कं पुण अज्झयणं कित्तइस्सामि ॥७॥ तं जहा सामाइयं १ चउवीसत्थओ २ वंदणं ३ पडिक्कमणं ४ काउस्सग्गो ५ पच्चक्खाणं ६ ।
[७४] इस प्रकार से आवश्यकशास्त्र के समुदायार्थ का संक्षेप में कथन करके अब एक-एक अध्ययन का वर्णन करूंगा। उनके नाम यह हैं
१. सामायिक, २. चतुर्विंशतिस्तव, ३. वंदना, ४. प्रतिक्रमण, ५. कायोत्सर्ग और ६. प्रत्याख्यान। विवेचन— यह प्रतिज्ञावाक्य है। पिंडार्थ के रूप में आवश्यकशास्त्र के जिस अर्थ का पूर्व में संकेत किया है