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आवश्यकनिरूपण
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जाणगसरीरदव्वावस्सयं आवस्सए त्ति पदत्थाधिकारजाणगस्स जं सरीरयं ववगयचुतचावितचत्तदेहं जीवविप्पजढं सेज्जागयं वा संथारगयं वा सिद्धसिलातलगयं वा पासित्ता णं कोइ भंणेज्जा - अहो ! णं इमेणं सरीरसमुस्सएणं जिणदिद्वेणं भावेणं आवस्सए त्ति पयं आघवियं पण्णवियं परूवियं दंसियं निदंसियं उवदंसियं । जहा को दिट्टंतो ? अयं मुहुकुंभे आसी, अयं घयकुंभे आसी । से तं जाणगसरीरदव्वावस्सयं ।
[१७ प्र.] भगवन् ! ज्ञायकशरीरद्रव्यावश्यक का क्या स्वरूप है ?
[१७ उ.] आयुष्मन् ! आवश्यक इस पद के अर्थाधिकार को जानने वाले के व्यपगत चैतन्य से रहित, च्युत-च्यावित — आयुकर्म के क्षय होने से श्वासोच्छ्वास आदि दस प्रकार के प्राणों से रहित, त्यक्तदेह – आहारपरिणतिजनित वृद्धि से रहित, ऐसे जीवविप्रमुक्त शरीर को शैयागत, संस्तारकगत अथवा सिद्धशिलागत —— अनशन आदि अंगीकार किये गये स्थान पर स्थिति देखकर कोई कहे — 'अहो ! इस शरीररूप पुद्गलसंघात ने जिनोपदिष्ट भाव से आवश्यक पद का (गुरु से) अध्ययन किया था, सामान्य रूप से शिष्यों को प्रज्ञापित किया था, विशेष रूप से समझाया था, अपने आचरण द्वारा शिष्यों को दिखाया था, निदर्शित — अक्षम शिष्यों को आवश्यक ग्रहण कराने का प्रयत्न किया था, उपदर्शित—नयों और युक्तियों द्वारा शिष्यों के हृदय में अवधारण कराया था।' ऐसा शरीर ज्ञायकशरीरद्रव्य-आवश्यक है ।
शिष्य— इसका समर्थक कोई दृष्टान्त है ?
आचार्य— (दृष्टान्त इस प्रकार है — ) यह मधु का घड़ा था, यह घी का घड़ा था।
यह ज्ञायकशरीरद्रव्यावश्यक का स्वरूप है।
विवेचन—– सूत्र में द्रव्यावश्यक के दूसरे भेद नोआगम के ज्ञायकशरीरद्रव्यावश्यक का स्वरूप बतलाया है। जिसने पहले आवश्यकशास्त्र का सविधि ज्ञान प्राप्त कर लिया था, किन्तु अब पर्यायान्तरित हो जाने से उसका वह निर्जीव शरीर आवश्यकसूत्र के ज्ञान से सर्वथा रहित होने के कारण नोआगमज्ञायकशरीरद्रव्यावश्यक है।
यद्यपि मृतावस्था में चेतना नहीं होने से उस शरीर में द्रव्यावश्यकता नहीं है, तथापि भूतपूर्व-प्रज्ञापननयापेक्षया अतीत आवश्यक पर्याय के प्रति कारणता मानकर उसमें द्रव्यावश्यकता मानी गई है। लोकव्यवहार में ऐसा माना भी जाता है, जो सूत्रगत दृष्टान्तों से स्पष्ट है कि पहले जिस घड़े में मधु या घृत भरा जाता था लेकिन अब नहीं भरे जाने पर भी 'यह मधुकुंभ है, यह घृतकुंभ है' ऐसा कहा जाता है। इसी प्रकार निर्जीव शय्यादिगत शरीर भी भूतकालीन आवश्यक पर्याय का कारण रूप आधार होने से नोआगम की अपेक्षा द्रव्यावश्यक है।
सूत्रस्थ 'अहो': शब्द दैन्य, विस्मय और आमंत्रण इन तीन अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। जैसे शरीर अनित्य है इससे दैन्य का, इस निर्जीव शरीर ने आवश्यक जाना था इससे विस्मय का और देखो इस शरीरसंघात ने आवश्यकशास्त्र का ज्ञान प्राप्त किया था, इससे परिचितों को आमंत्रित करने का आशय घटित होता है।
विशिष्ट शब्दों का अर्थ — सेज्जा ( शय्या) सर्वांगप्रमाण लंबा-चौड़ा पाटा आदि । संथार (संस्तार )अढाई हाथ प्रमाण लंबा-चौड़ा पाट, यह शय्या के प्रमाण से आधा होता है। सिद्धसिलातल (सिद्धशिलातल). अनेकविध तपस्याओं को करने वाले साधुजनों ने जहां स्वयमेव जाकर भक्तप्रत्याख्यान रूप अनशन किया है करते