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अनुयोगद्वारसूत्र
अनेक अजीवों का आवासक नाम इस प्रकार जानना चाहिए घोंसला अनेक अचित्त तिनकों से बनता है और उसमें पक्षी रहने से पक्षियों का वह आवासक है, यह कहा जाता है। अतः उन अनेक अजीवों में आवासक ऐसा नाम सिद्ध है।
जीव और अजीव इन दोनों का आवासक यह नाम इस प्रकार है—जलाशय, उद्यान आदि से युक्त राजमहल राजा का आवास नाम से कहलाता है। वहां जलाशय-उद्यान आदि सचित्त और ईंट आदि अचित्त हैं और इन दोनों से निष्पन्न राजमहल आवास रूप होने से वह इन दोनों से निष्पन्न राजमहल आवास रूप होने से आवासक नामनिक्षेप
ता है। इसी प्रकार राजप्रासाद से यक्त समस्त नगर राजा आदि का आवास रूप से व्यवहार में कह दिया जाता है। जिससे उन सम्मिलित अनेक अजीवों और जीवों का आवासक ऐसा नाम कहलाता है।
इसी प्रकार अन्य सभी जीव आदि के लिए आवासक संज्ञा समझ लेना चाहिए।
स्थापना-आवश्यक- 'अमुक यह है' इस अभिप्राय से जो स्थापना की जाती है, उसे स्थापना और काष्ठादि की पुतली में आवश्यकवान् श्रावक आदि रूप जो स्थापना होती है उसे स्थापना-आवश्यक कहते हैं। यह आवश्यक क्रिया और आवश्यक क्रियावान् में अभेदोपचार से संभव है। अर्थात् भाव-आवश्यक से रहित वस्तु में भाव-आवश्यक के अभिप्राय से स्थापना किये जाने से इसे स्थापना-आवश्यक कहते हैं।
यह स्थापना तत्सदृश-तदाकार और असदृश-अनाकार (अतदाकार) इन दोनों प्रकार की वस्तुओं में कुछ कालविशेष के लिए अथवा यावत्कथिक (जब तक वस्तु रहे तब तक) के लिए की जा सकती है।
__यद्यपि जैसे भाव-आवश्यक से शून्य वस्तु में नामनिक्षेप किया जाता है, उसी प्रकार भाव से शून्य वस्तु में तदाकार या अतदाकार स्थापना भी की जाती है; अतएव भावशून्यता की अपेक्षा दोनों में समानता है। परन्तु कालमर्यादा की अपेक्षा दोनों में विशेषता होने से दोनों पृथक्-पृथक् माने जाते हैं। नाम तो स्वाश्रय द्रव्य के अस्तित्व काल तक रहता है। अर्थात् नामव्यवहार यावत्कथिक ही है, जबकि स्थापना स्वल्प काल के लिए भी और यावत्कथिक भी होती है।
___ इसके सिवाय दोनों में अन्य प्रकार से भी भिन्नता संभव है। जैसे कि इन्द्रादि की प्रतिमा में कुंडल-कटककेयूर आदि से भूषित आकृति दिखती है और देखकर सम्मान, आदर का भाव पैदा होता है—वैसा नाम इन्द्र को देखने-सुनने में उल्लास आदि उत्पन्न नहीं होता है।
इस प्रकार की स्थितिविशेष नाम और स्थापना निक्षेप के पार्थक्य—भिन्नता का कारण है। सूत्रगत विशिष्ट शब्दों के अर्थ इस प्रकार हैं
कट्ठकम्मे (काष्ठकर्म)—लकड़ी में उकेरी गई आकृति। चित्तकम्मे (चित्रकर्म)—कागज आदि पर चित्रित आकृति। पोत्थकम्मे (पुस्तकर्म)—कपड़े पर चित्रित आकृति आदि। अथवा पुस्तक आदि में बनाई गई रचना विशेष या ताडपत्र पर छेद कर बनाये गये आकार आदि। लेप्पकम्मे (लेप्यकर्म)—गीली मिट्टी के पिंड से रचित आकार। गंथिमे (ग्रन्थिम)—सूत आदि को गूंथकर बनाई गई रचना। वेढिमे (वेष्टिम)—एक, दो या अनेक वस्त्रों को वेष्टित कर, लपेटकर बनाया गया आकार । पूरिमे (पूरिम)-गर्म तांबे, पीतल आदि को सांचे में ढालकर बनाया गया आकार । संघाइमे (संघातिम)—पुष्पों आदि को अथवा अनेक वस्त्रखंडों को सांधकर-जोड़कर बनाया गया रूपक। अक्खे (अक्ष)-चौपड़ के पासे आदि । वराडक (वराटक)-कौड़ी।