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आवश्यकनिरूपण
१३. से किं तं दव्वावस्सयं ?
दव्वावस्सयं दुविहं पण्णत्तं । तं जहा— आगमतो य १ णो आगमतो य २ ।
[१३ प्र.] भगवन् ! द्रव्य आवश्यक का क्या स्वरूप है ?
[१३ उ.] आयुष्मन् ! द्रव्यावश्यक दो प्रकार का कहा है। वह इस प्रकार हैनो आगम- द्रव्यावश्यक ।
विवेचन— यहां भेद करके द्रव्यावश्यक का स्वरूप बतलाया गया है।
द्रव्य— जो उन-उन पर्यायों को प्राप्त करता है वह द्रव्य है अर्थात् जो अतीत, अनागत भाव का कारण हो उसे द्रव्य कहते हैं। विवक्षित पर्याय का जो अनुभव कर चुकी अथवा भविष्यत् काल में अनुभव करेगी ऐसी वस्तु प्रस्तुत प्रसंग में द्रव्य के रूप में परिगणित हुई है।
इस प्रकार का द्रव्य रूप जो आवश्यक हो वह द्रव्य - आवश्यक है। अर्थात् जो आवश्यक रूप परिणाम का अनुभव कर चुका अथवा भविष्य में अनुभव करेगा ऐसा आवश्यक के उपयोग से शून्य साधु का शरीर आदि द्रव्य - आवश्यक पद का अभिधेय है।
आगमद्रव्य- आवश्यक
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१.
-१. आगम-द्रव्यावश्यक, २.
१४. से किं तं आगमतो दव्वावस्सयं ?
आगमतो दव्वावस्सयं जस्स णं आवस्सए त्ति पदं सिक्खितं ठितं जितं मितं परिजितं णामसमं घोससमं अहीणक्खरं अणच्चक्खरं अव्वाइद्धक्खरं अक्खलियं अमिलियं अवच्चामेलियं पडिपुण्णं पडिपुण्णघोसं कंठोट्ठविप्पमुक्कं गुरुवायणोवगयं । से णं तत्थ वायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए धम्मकहाए, णो अणुप्पेहाए । कम्हा ? " अणुवओगो दव्व" मिति कट्टु ।
[१४ प्र.] भगवन् ! आगमद्रव्य आवश्यक का क्या स्वरूप है ?
[१४ उ.] आयुष्मन् ! आगमद्रव्य - आवश्यक का स्वरूप इस प्रकार है— जिस (साधु) ने 'आवश्यक' पद को सीख लिया है, (हृदय में) स्थित कर लिया है, जित—आवृत्ति करके धारणा रूप कर लिया है, मित—— श्लोक, पद, वर्ण आदि संख्याप्रमाण का भली-भांति अभ्यास कर लिया है, परिजित – आनुपूर्वी - अनानुपूर्वी पूर्वक सर्वात्मना परावर्तित कर लिया है, नामसम— स्वकीय नाम की तरह अविस्मृत कर लिया है, घोषसम —— उदात्तादि स्वरों के अनुरूप उच्चारण किया है, अहीनाक्षर-अक्षर की हीनतारहित उच्चारण किया है, अनत्यक्षर-अक्षरों की अधिकता रहित उच्चारण किया है, अव्याविद्धाक्षर —— व्यतिक्रम रहित उच्चारण किया है, अस्खलित-— स्खलित रूप (बीच-बीच में कुछ अक्षरों को छोड़कर) से उच्चारण नहीं किया है, अमिलित-— शास्त्रान्तर्वर्ती पदों को मिश्रित करके उच्चारण नहीं किया है, अव्यत्याम्रेडित——– एक शास्त्र के भिन्न-भिन्न स्थानगत एकार्थक सूत्रों को एकत्रित करके पाठ नहीं किया है, प्रतिपूर्ण— अक्षरों और अर्थ की अपेक्षा शास्त्र का अन्यूनाधिक अभ्यास किया है,
सूत्रों का पाठ करते समय बीच-बीच में स्वबुद्धि से रचित तत्सदृश सूत्रों का उच्चारण करना अथवा बोलते समय जहाँ विराम लेना हो वहाँ विराम नहीं लेना और जहां विराम नहीं लेना हो वहां विराम लेने को भी व्यत्याम्रेडित कहते हैं ।