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अभिधेयनिर्देश
३. निरुक्ति– शब्दगत अक्षरों का निर्वचन करना। अर्थात् तीर्थंकरप्ररूपित अर्थ का गणधरोक्त शब्दसमूह रूप सूत्र के साथ अनुकूल, नियत सम्बन्ध प्रकट करना।
४. विधि— सूत्र के अर्थ कहने अथवा अनुयोग करने की पद्धति को विधि कहते हैं । वह इस प्रकार हैसर्वप्रथम गुरु को शिष्य के लिए सूत्र का अर्थ कथन करना चाहिए। दूसरी बार उस कथित अर्थ को नियुक्ति करके समझाना चाहिए और तीसरी बार प्रसंग, अनुप्रसंग सहित जो अर्थ होता हो उसका निर्देश करना चाहिए। यही सामान्य से अनुयोग की विधि है।
अनुयोग-श्रवण के अधिकारी— सामान्य से परिषद् (श्रोतृसमूह) के तीन प्रकार हैं-१. ज्ञायक, २. अज्ञायक और ३. दुर्विदग्धा।
ज्ञायकपरिषद्-गुण और दोषों के स्वरूप को जो विशेष रूप से जानती है और कुशास्त्रों के मानने वाले मतों में जिसे आग्रह नहीं होता, ऐसी परिषद् ज्ञायकपरिषद् कहलाती है। यह परिषद् हंस की तरह दोष रूपी जल का परित्याग करके गुण रूपी दूध को ग्रहण करने वाली होती है।
अज्ञायकपरिषद्- जिसके सदस्य स्वभावतः भद्र, सरल होते हैं और समझाने से सन्मार्ग पर आ जाते हैं। ऐसी परिषद् को अज्ञायकपरिषद् कहते हैं।
दुर्विदग्धापरिषद्- जिसके सदस्य किसी भी विषय में निष्णात न हों, अप्रतिष्ठा के भय से जो निष्णात से नहीं पूछे, ज्ञान के संस्कार से रहित, पल्लवग्राही पांडित्य से युक्त हों, ऐसे व्यक्तियों की सभा दुर्विदग्धापरिषद् कहलाती है।
इन तीन परिषदाओं में से आदि की दो अनुयोग का बोध प्राप्त करने योग्य हैं।
अनुयोगकर्ता की योग्यता- अनुयोग करने के अधिकारी-कर्ता की योग्यता का शास्त्रों में इस प्रकार से उल्लेख किया है—
१-४- जो आर्यदेश में उत्पन्न हुआ हो। जिसका कुल (पितृवंश) और जाति (मातृवंश) विशुद्ध हो। सुन्दर आकृति, रूप आदि से संपन्न हो। ५. जो दृढ़ संहननी (शारीरिक शक्तिसंपन्न) हो। ६. धृतियुक्त— परिषह और उपसर्ग सहन करने में समर्थ हो। ७. अनाशंसी— सत्कार-सम्मान आदि का अनाकांक्षी हो। ८. अविकत्थन—व्यर्थ का भाषण करने वाला न हो। ९. अमायी—कपट भावरहित निष्कपट हो। १०. स्थिरपरिपाटी—अभ्यास द्वारा अनुयोग करने का स्थिर अभ्यासी अथवा गुरुपरम्परा से प्राप्त ज्ञान का धनी हो। ११. ग्रहीतवाक्य—आदेय वचन बोलने वाला हो। १२. जितपरिषद् सभा को प्रभावित करने वाला एवं क्षुभित न होने वाला हो। १३. जितनिद्रशास्त्रीय अध्ययन-चिन्तन-मनन करते हुए निद्रा का वशवर्ती नहीं होने वाला। १४. मध्यस्थ—पक्षपात रहित
१.
सुत्तत्थो खलु पढमो, बीओ निज्जुत्तिमीसितो भणितो । तइओ य निरवसेसो, एस विही होइ अणुओगे ॥
—अनुयोग. वृत्ति पं: ७
२.
अनुयोग. वृत्ति प. ८