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________________ ७ अभिधेयनिर्देश जाय, अतः इसकी आवृत्ति करो, इसे स्थिर - परिचित करो, इस प्रकार का गुरु का आदेशमूलक वचन समुद्देश कहलाता है । णो अणुण्णविज्जंति — अनुज्ञा - आज्ञा नहीं दी जाती। पठित ग्रन्थ का धारणा रूप संस्कार जमाओ, दूसरों को इसे पढ़ाओ, इस प्रकार के गुरु के आज्ञा रूप वचन को अनुज्ञा कहते हैं । ३. जड़ सुयणाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तड़, किं अंगपविट्ठस्स उद्देसो समुसो अण्णा अणुओगो य पवत्तइ ? अंगबाहिरस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ ? अंगपविट्ठस्स वि उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ, अंगबाहिरस्स वि उद्देसो समुसो अण्णा अणुओगो य पवत्तइ । इमं पुण पट्टवणं पडुच्च अंगबाहिरस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो । [३ प्र.] भगवन् ! यदि श्रुतज्ञान में उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग की प्रवृत्ति होती है तो वह उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग की प्रवृत्ति अंगप्रविष्ट श्रुत में होती है। अथवा अंगबाह्य श्रुत में उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग की प्रवृत्ति होती है ? [३ उ.] आयुष्मन् ! अंगप्रविष्ट (आचारांग आदि) श्रुत में भी उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग की प्रवृत्ति होती है तथा अंगबाह्य आगम (श्रुत) में भी उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग प्रवर्तित होते हैं । किन्तु यहां अंगबाह्य श्रुत का उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा, अनुयोग प्रारंभ किया जायेगा । ४. जइ अंगबाहिरस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ, किं कालियस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो ? उक्कालियस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो ? कालियस्स वि उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो । उक्कालियस्स वि उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो । इमं पुण पट्टवणं पडुच्च उक्कालियस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो । [४ प्र.] भगवन् ! यदि अंगबाह्य श्रुत में उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग की प्रवृत्ति होती है तो क्या वह उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग की प्रवृत्ति कालिकश्रुत में होती है अथवा उत्कालिक श्रुत में उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग प्रवर्तमान होते हैं ? [४ उ.] आयुष्मन् ! कालिकश्रुत में भी उद्देश यावत् अनुयोग की प्रवृत्ति होती है और उत्कालिक श्रुत में भी उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग प्रवृत्त होते हैं, किन्तु यहां उत्कालिक श्रुत का उद्देश यावत् अनुयोग प्रारम्भ किया जायेगा । विवेचन — यह दो सूत्र शास्त्र के वर्ण्य विषय की भूमिका रूप हैं और प्रश्नोत्तर के माध्यम से यह स्पष्ट किया है कि यद्यपि अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य रूप में माने गये दोनों प्रकार के श्रुत का अनुयोग किया जाता है। लेकिन यहां अंगबाह्यश्रुत और उसके भी कालिक एवं उत्कालिक रूप से माने गये दो भेदों में से मात्र उत्कालिक श्रुत के सम्बन्ध में अनुयोग का विचार किया जा रहा है। अंगप्रविष्ट— तीर्थंकरों के उपदेशानुसार जिन शास्त्रों की रचना स्वयं गणधर करते हैं, वे अंगप्रविष्ट शास्त्र कहलाते हैं ।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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