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अनुयोगद्वारसूत्र
सामान्यतया सभी संसारी जीवों में पाये जाते हैं। तीन होने पर मति, श्रुत और अवधि अथवा मति, श्रुत और मनःपर्यव यह तीन ज्ञान पाये जाते हैं और चारों हों तो मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव ये चारों ज्ञान संभव हैं। उपयोग की दृष्टि से एक समय में एक ही ज्ञान होता है। अभिधेयनिर्देश
२. तत्थ चत्तारि णाणाई ठप्पाइं ठवणिज्जाइं, णो उहिस्संति णो समुद्दिस्संति णो अणुपणविनंति, सुयणाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ ।
[२] इन (पांच प्रकार के) ज्ञानों में से चार ज्ञान (मति, अवधि, मनःपर्यव और केवलज्ञान) व्यवहार योग्य न होने से स्थाप्य हैं, स्थापनीय हैं। क्योंकि ये चारों ज्ञान (गुरु द्वारा शिष्यों को) उपदिष्ट नहीं होते हैं, समुपदिष्ट नहीं होते हैं और न इनकी आज्ञा दी जाती है। किन्तु श्रुतज्ञान का उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग होता है।
विवेचन— सूत्र में श्रुतज्ञान का अभिधेय कोटि में ग्रहण करने और शेष चार ज्ञानों को ग्रहण न करने के कारण को स्पष्ट किया है कि यद्यपि श्रुतज्ञान के अतिरिक्त शेष मतिज्ञान आदि चारों ज्ञान भी पदार्थबोध के हेतु हैं, परन्तु श्रुतज्ञान की तरह इनमें शब्दव्यवहार की प्रवृत्ति का अभाव होने से ये अपने स्वरूप, अनुभव एवं पदार्थ के स्वरूप को व्यक्त नहीं कर पाते हैं। श्रुतज्ञान का आश्रय लिए बिना वे अपने विषयभूत हेयोपादेय विषय से न तो साक्षात् रूप में निवृत्त कराते हैं और न उसमें प्रवृत्त कराते हैं। इसीलिए उक्त चार ज्ञानों को यहां विचारकोटि में ग्रहणयोग्य नहीं माना है। जो लोकोपकार में प्रवृत्त होता है, वह संव्यवहार्य है, लेकिन मत्यादि चार ज्ञानों की स्थिति वैसी नहीं है।
मत्यादि चार ज्ञानों के असंव्यवहार्य होने से इसका उद्देश, समुद्देश नहीं होता और न अनुज्ञा-आज्ञा होती है। ये चारों ज्ञान अपने-अपने आवरणीय कर्म के क्षयोपशम एवं क्षय से स्वतः ही आविर्भूत हो जाया करते हैं। अपनी आविर्भूति-उत्पत्ति में उद्देश, समुद्देश आदि की अपेक्षा नहीं रखते हैं। ___ श्रुतज्ञान के उद्देश आदि होने का कारण— प्रायः लोक की हेयोपादेय अर्थ में प्रवृत्ति-निवृत्ति श्रुतज्ञान के द्वारा देखने में आती है तथा केवलज्ञानादि द्वारा जाने गये अर्थ की प्ररूपणा श्रुतज्ञान (शब्द) द्वारा की जाती है। इसीलिए उसे संव्यवहार्य-लोकव्यवहार का कारण होने से, गुरूपदेश से उसकी प्राप्ति होने से, गुरु द्वारा शिष्यों को प्रदान किये जाने से और स्वपर-स्वरूप का प्रतिपादन करने में समर्थ होने से श्रुतज्ञान का उद्देश, समुद्देश और अनुज्ञा आदि किया जाना संभव है और जिसके उद्देश आदि होते हैं, उसमें अनुयोग, उपक्रम आदि अनुयोगद्वारों की प्रवृत्ति होती है। सारांश यह हुआ कि श्रुतज्ञान के अतिरिक्त शेष चार ज्ञान आदान-प्रदान करने योग्य नहीं हैं, परोपकारी नहीं हैं, अपितु जिस आत्मा को जो ज्ञान होता है वही उसका अनुभव करता है, अन्य नहीं। किन्तु श्रुतज्ञान परोपकारी है इसीलिए श्रुतज्ञान के उद्देश आदि होते हैं और चारों ज्ञानों का स्वरूप-वर्णन भी श्रुतज्ञान द्वारा किया जाता है।
विशिष्ट शब्दों के अर्थ- ठप्पाई स्थाप्य असंव्यवहार्य-व्यवहार में जिनका उपयोग किया जाना संभव नहीं है । ठवणिज्जाइं—स्थापनीय हैं—अव्याख्येय होने से इस प्रसंग में वे विचारकोटि में ग्रहण किये जाने योग्य नहीं हैं। णो उद्दिस्संति—इनका उद्देश नहीं किया जाता है। तुम्हें पढ़ना चाहिए, शिष्य के लिए इस प्रकार के गुरु के आज्ञा-उपदेश रूप वचन को उद्देश कहते हैं। णो समुद्दिस्संति समुद्देश नहीं होता। यह पठित ग्रन्थ विस्मृत न हो