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________________ नय निरूपण ४४९ मुख्य कारण क्रिया ही है। यह क्रियानय का मंतव्य है। किन्तु किसी भी एकान्त पक्ष में मोक्षप्राप्ति का अभाव है। इसलिए अब मान्य पक्ष प्रस्तुत करते हैं सर्व नयों के नाना प्रकार के वक्तव्यों को सुनकर—नयों के परस्पर विरोधी भावों को सुनकर जो साधु ज्ञान और क्रिया में स्थित है वही मोक्ष का साधक होता है। केवल ज्ञान और केवल क्रिया से कार्यसिद्धि नहीं होती है। अन्नादि का ज्ञान होने पर भी बिना भक्षण क्रिया के उदरपोषणादि नहीं होता है। केवल क्रिया से भी कार्यसिद्धि नहीं होती है। जैसे क्रिया से रहित ज्ञान निष्फल है वैसे ही ज्ञान से रहित क्रिया भी कार्यसाधक नहीं है। यथा—पंगु और अंधे भागते हुए भी सुमार्ग को प्राप्त नहीं होते, एक चक्र (पहिये) से शकट (गाड़ी) नगर को प्राप्त नहीं कर सकती, इसी प्रकार अकेले ज्ञान और अकेली क्रिया से सिद्धि नहीं होती, अपितु दोनों के समुचित समन्वय से सिद्धि प्राप्त होती है। ___ कदाचित् कहा जाए कि जब पृथक्-पृथक् दोनों में मुक्तिसाधन की शक्ति नहीं तो उभय में वह शक्ति कहां से हो सकती है ? समाधान यह है कि ज्ञान और क्रिया पृथक्-पृथक् रूप में देश उपकारी होते हैं, दोनों मिलने से सर्व उपकारी होते हैं। ___ इस प्रकार से नयद्वार की वक्तव्यता के पूर्ण होने से चतुर्थ अनुयोगद्वार की और साथ ही श्रीमदनुयोगद्वार सूत्र की भी पूर्ति होती है। अनुयोगद्वार सूत्र के चार मुख्य द्वार हैं, जिनमें यह नयद्वा चौथा है। अतः इसकी पूर्ति होने से अनुयोगद्वार सूत्र की भी पूर्ति हो गई। लिपिकार का वक्तव्य ___अनुयोगद्वार सूत्र की कुल मिलाकर सोलह सौ चार (१६०४) गाथाएं हैं तथा दो हजार (२०००) अनुष्टप छन्दों का परिमाण है। १४२ जैसे महानगर के मुख्य-मुख्य चार द्वार होते हैं, उसी प्रकार इस श्रीमदनुयोगद्वार सूत्र के भी उपक्रम आदि चार द्वार हैं। इस सूत्र में अक्षर, बिन्दु और मात्रायें जो लिखी गई हैं, वे सब सर्व दु:खों के क्षय करने के लिए ही हैं। १४३ । विवेचनयद्यपि ये गाथायें मूल सूत्र में नहीं हैं वृत्तिकारों ने भी इनकी वृत्ति नहीं लिखी है। तथापि सारांश अच्छा होने से अनुयोगद्वारसूत्र की पूर्ति के पश्चात् इनको उद्धृत किया गया है। गाथार्थ सुगम और सुबोध है। ॥ श्रीमद्नुयोगद्वारसूत्र समाप्त ॥
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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