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________________ ४४८ अनुयोगद्वारसूत्र सव्वेसि पि नयाणं बहुविहवत्तव्वयं निसामेत्ता । तं सव्वनयविसुद्धं जं चरणगुणट्ठिओ साहू ॥ १४१॥ से तं नए । सोलससयाणि चउरुत्तराणि गाहाण जाण सव्वग्गं । दुसहस्समणुढुभछंदवित्तपरिमाणओ भणियं ॥ १४२॥ नगरमहादारा इव कम्मदाराणुओगवरदारा । अक्खर-बिंदू-मत्ता लिहिया दुक्खक्खयट्ठाए ॥१४३॥ नयवर्णन के लाभ- इन नयों द्वारा हेय और उपादेय अर्थ का ज्ञान प्राप्त करके तदनुकूल प्रवृत्ति करनी ही चाहिए। इस प्रकार का जो उपदेश है वही (ज्ञान) नय कहलाता है। १४० इन सभी नयों की परस्पर विरुद्ध वक्तव्यता को सुनकर समस्त नयों से विशुद्ध सम्यक्त्व, चारित्र (और ज्ञान) गुण में स्थित होने वाला साधु (मोक्षसाधक हो सकता) है। १४१ इस प्रकार नय-अधिकार की प्ररूपणा जानना चाहिए। साथ ही अनुयोगद्वारसूत्र का वर्णन समाप्त होता है। विवेचन – उपर्युक्त दो गाथाओं में नयवर्णन से प्राप्त लाभ का उल्लेख किया है। "जितने वचनमार्ग हैं, उतने ही नय हैं' इस सिद्धान्त के अनुसार नयों के अनेक भेद हैं। नैगम, संग्रह आदि सात भेद और अर्थनय एवं शब्दनय के भेद से दो भेद पूर्व में बताये हैं। इनके अतिरिक्त भी द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिक, ज्ञान-क्रिया, निश्चय-व्यवहार आदि भेद भी किये जा सकते हैं, तथापि यहां मोक्ष का कारण होने से सर्व अध्ययन का विचार ज्ञाननय और क्रियानय की अपेक्षा किया गया जानना चाहिए। क्योंकि गाथा में इसी प्रकार का कथन किया गया है __ पदार्थों में जो उपादेय हों उन्हें ग्रहण करना और जो हेय हों उन्हें त्याग करना चाहिए तथा ज्ञेय (जानने योग्य) हों उन्हें मध्यस्थ भाव से जानना चाहिए। इस लोक सम्बन्धी सुखादि सामग्री ग्रहण योग्य है, विषादि पदार्थ त्यागने योग्य और तृण आदि पदार्थ उपेक्षणीय हैं। यदि परलोक सम्बन्धी विचार किया जाये तो सम्यग्दर्शनादि ग्रहण करने योग्य हैं, मिथ्यात्वादि त्यागने योग्य हैं और स्वर्गिक सुख उपेक्षणीय है। ज्ञाननय का मंतव्य है कि ज्ञान के बिना किसी कार्य की सिद्धि नहीं होती है। ज्ञानी पुरुष ही मोक्ष के फल का अनुभव करते हैं। अन्धा पुरुष अन्धे के पीछे-पीछे गमन करने से वांछित लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता है। ज्ञान के बिना पुरुषार्थ की सिद्धि नहीं होती है। सभी व्रतादि एवं क्षायिक सम्यक्त्व आदि अमूल्य पदार्थों की प्राप्ति ज्ञान से होती है। अतएव सबका मूल कारण ज्ञान है। क्रियानय का मंतव्य है कि सिद्धि प्राप्त करने का मुख्य कारण क्रिया ही है। क्योंकि तीनों प्रकार के अर्थों का ज्ञान करके प्रयत्न करना चाहिए। इस कथन से क्रिया की ही सिद्धि होती है। ज्ञान तो क्रिया का उपकरण है। इसलिए क्रिया मुख्य और ज्ञान गौण है। मात्र ज्ञान से जीव सुख नहीं पाते। तीर्थंकर देव भी अंतिम समय पर्यन्त क्रिया के ही आश्रित रहते हैं। बीज को भी अंकुरोत्पत्ति के लिए बाह्य सामग्री की आवश्यकता होती है। इसलिए सबका
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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