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नय निरूपण
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समभिरूढ़नय से एवंभूतनय में यह अन्तर है कि यद्यपि ये दोनों नय व्युत्पत्तिभेद से शब्द के अर्थ में भेद मानते हैं, परन्तु समभिरूढ़नय तो उस व्युत्पत्ति को सामान्य रूप से अंगीकार करके वस्तु की हर अवस्था में उसे स्वीकार कर लेता है । परन्तु एवंभूतनय तो उस व्युत्पत्ति का अर्थ तभी ग्रहण करता है, जबकि वस्तुतः क्रियापरिणत होकर साक्षात् रूप से उस व्युत्पत्ति की विषय बन रही हो ।
सुनय और दुर्न पूर्वोक्त सात नयों में से यदि वे अन्य धर्मों का निषेध करके केवल अपने अभीष्ट एक धर्म का ही प्रतिपादन करते हैं, तब दुर्नय रूप हो जाते हैं। दुर्नय अर्थात् जो वस्तु के एक धर्म को सत्य मानकर अन्य धर्मों का निषेध करने वाला हो। जैसे नैगमनय से नैयायिक— वैशेषिक दर्शन उत्पन्न हुए। अद्वैतवादी और सांख्य संग्रहनय को ही मानते हैं। चार्वाक व्यवहारनयवादी ही है। बौद्ध केवल ऋजुसूत्रनय का तथा वैयाकरणी शब्द आदि तीन नयों का ही अनुसरण करते हैं। इस प्रकार ये सभी एकान्त पक्ष के आग्रही होने से दुर्नयवादी हैं।
सात नयों का वर्गीकरण और अल्पबहुत्व- पूर्वोक्त नैगम आदि सात नयों में से नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्रनय ये चार नय अर्थ के प्रतिपादक होने से अर्थनय कहे जाते हैं। शब्द समभिरूढ़ और एवंभूतनय शब्द का प्रतिपादन करने से शब्दनय हैं।
इनमें पूर्व-पूर्व के नय अधिक विषय और उत्तर - उत्तर के नय परिमित विषय वाले हैं। जैसे संग्रहनय सामान्य मात्र को स्वीकार करता है जबकि नैगमनय सामान्य और विशेष दोनों को। इसलिए संग्रहनय की अपेक्षा
मन का विषय अधिक है। व्यवहारनय संग्रहनय के द्वारा गृहीत पदार्थों में से विशेष को जानता है और संग्रहनय समस्त सामान्य पदार्थों को जानता है, इसलिए संग्रहनय का विषय व्यवहारनय से अधिक है । व्यवहारनय तीनों कालों के पदार्थों को जानता है, जबकि ऋजुसूत्र केवल वर्तमानकालीन पदार्थों का ज्ञान कराता है। अतएव ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा व्यवहारनय का विषय अधिक है । शब्दनय काल आदि के भेद से वर्तमान पर्याय को जानता है किन्तु ऋजुसूत्र मैं काल आदि का कोई भेद नहीं है। इसलिए शब्दनय से ऋजुसूत्रनय का विषय अधिक है । समभिरूढ़नय पर्यायवाची शब्दों को भी व्युत्पत्ति की अपेक्षा भिन्न रूप से जानता है, परन्तु शब्दनय में यह सूक्ष्मता नहीं है। अतएव शब्दनय की अपेक्षा समभिरूढ़नय का विषय अल्प है। एवंभूतनय समभिरूढ़नय से जाने हुए पदार्थ में क्रिया के भेद से भेद मानता है। अतएव एवंभूत से समभिरूढ़नय का विषय अधिक है।
नयविचार का प्रयोजन प्रस्तुत प्रकरण में यह है कि पूर्व प्रकान्त सामायिक अध्ययन सर्वप्रथम उपक्रम से उपक्रान्त होता है और निक्षेप से यथासंभव निक्षिप्त होता है । तत्पश्चात् अनुगम से वह जानने योग्य बनता है और इसके बाद नयों से उसका विचार किया जाता है।
यद्यपि पूर्व में उपोद्घातनिर्युक्ति में समस्त अध्ययन के विषय वाला नय विचार किया जा चुका है, तथापि यहां उसका पृथक् निर्देश इसलिए किया है कि चौथा जो अनुयोगद्वार है, वही नयवक्तव्यता का मूल स्थान है। क्योंकि यहां सिद्ध हुए नयों का पूर्व में उपन्यास किया गया है।
नयवर्णन के लाभ
६०६. (आ) णायम्मि गिहियव्वे अगिहियव्वम्मि चेव अत्थम्मि |
जइयव्वमेव इइ जो उवएसो सो नओ नाम ॥ १४० ॥