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अनुयोगद्वारसूत्र ८. मृगसम— जैसे मृग हिंसक पशुओं, शिकारियों आदि से सदा भीतचित्त रहता है, उसी प्रकार साधु भी संसारभय से सदा उद्विग्न रहने के कारण मृगसम हैं।
९. धरणिसम— पृथ्वी जैसे सब कुछ सहन करती है, इसी प्रकार साधु भी खेद, तिरस्कार, ताड़ना आदि को समभाव से सहन करने वाले होने से पृथ्वीसम हैं।
१०. जलरुहसम— जैसे कमल पंक (कीचड़) में पैदा होता है, जल में संवर्धित होता है किन्तु उनसे निर्लिप्त रहता है, उसी प्रकार साधु भी कामभोगमयी संसार में रहते हुए भी उससे अलिप्त रहने के कारण जलरुह (कमल) सम हैं।
११. रविसम- जैसे सूर्य अपने प्रकाश से समान रूप में सभी क्षेत्रों को प्रकाशित करता है, इसी प्रकार साधु अपने ज्ञान रूपी प्रकाश को देशना द्वारा सर्वसाधारण को समान रूप से प्रदान करने वाले होने से रविसम हैं।
१२. पवनसम— जिस प्रकार वायु की सर्वत्र अप्रतिहत गति होती है, उसी प्रकार साधु भी सर्वत्र अप्रतिबद्ध विचरणशील होने से पवनसम हैं। प्रकारान्तर से श्रमण का निर्वचन ५९९. (ई) तो समणो जइ सुमणो, भावेण य जइ ण होइ पावमणो ।
सयणे य जणे य समो, समो य माणाऽवमाणेसु ॥ १३२॥ से तं नोआगमतो भावसामाइए । से तं भावसामाइए । से तं सामाइए । से तं नामनिप्फण्णे ।
[५९९ (ई)] (पूर्वोक्त उपमाओं से उपमित) श्रमण तभी संभवित है जब वह सुमन हो, और भाव से भी पापी मन वाला न हो। जो माता-पिता आदि स्वजनों में एवं परजनों में समभावी हो, एवं मान-अपमान में समभाव का धारक हो।
इस प्रकार से नोआगमभावसामायिक, भावसामायिक, सामायिक तथा नामनिष्पन्ननिक्षेप की वक्तव्यता का आशय जानना चाहिए।
विवेचन— गाथा में प्रकारान्तर से श्रमण का लक्षण बताने के साथ उसकी योग्यता का तथा अंत में नामनिष्पन्ननिक्षेप की वक्तव्यता की समाप्ति का कथन किया है।
इन सब विशेषताओं से विभूषित श्रमण समन, सममन, सुमन ही सामायिक है। ।
समन और सामायिक में नोआगमता इसलिए है कि सामायिक ज्ञान के साथ क्रिया रूप है और क्रिया आगम रूप नहीं है। तथा सामायिक और सामायिक वाले—इन दोनों में अभेदोपचार करने से समन भी नोआगम की अपेक्षा भावसामायिक है। सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेप
६००. से किं तं सुत्तालावगनिप्फण्णे ?
सुत्तालावगनिप्फण्णे इदाणिं सुत्तालावगनिप्फण्णं निक्खेवं इच्छावेइ, से य पत्तलक्खणे वि ण णिक्खिप्पइ, कम्हा ? लाघवत्थं । इतो अत्थि ततिये अणुओगद्दारे अणुगमे त्ति, तहिं