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________________ सामायिक निरूपण ४३३ लिए प्रयुक्त समण आदि संज्ञाओं का निरूपण किया है। जिनकी व्याख्या इस प्रकार है १. सम्यक् प्रकार से जो मूलगुण रूप संयम, उत्तरगुण्ध रूप नियम और अनशनादि रूप तप में निहित—रतलीन है, वह समण कहलाता है। २.जो शत्र-मित्र का विकल्प न करके सभी को समान मानकर प्रवत्ति करता है, वह समण कहलाता है। ३.जैसे मुझे दुःख इष्ट नहीं, उसी प्रकार सभी जीवों को भी हननादि जनित दुःख प्रिय नहीं है। ऐसा अनुभव कर सभी को स्व-समान मानता है, वह सममन–समन–श्रमण है। अब उपमाओं द्वारा श्रमण का स्वरूप स्पष्ट करते हैं। श्रमण की उपमायें ५९९. (इ) उरग-गिरि-जलण-सागर-नहतल-तरुगणसमो य जो होइ । भमर-मिग-धरणि-जलरुह-रवि-पवणसमो य सो समणो ॥ १३१॥ [५९९ (इ)] जो सर्प, गिरि (पर्वत), अग्नि, सागर, आकाश-तल, वृक्षसमूह, भ्रमर, मृग, पृथ्वी, कमल, सूर्य और पवन के समान है, वही समण है। १३१ विवेचन- श्रमण का आचार भी विचारों के समान होता है, इस तथ्य का गाथोक्त उपमाओं द्वारा कथन किया है। श्रमण के लिए प्रयुक्त उपमायें— समण (श्रमण) के लिए प्रयुक्त उपमाओं के साथ समानता के अर्थ में सम शब्द जोड़कर उनका भाव इस प्रकार जानना चाहिए १. उरग (सर्प) सम— जैसे सर्प दूसरों के बनाये हुए बिल में रहता है, इसी प्रकार अपना घर नहीं होने से परकृत गृह में निवास करने के कारण साधु को उरग की उपमा दी है। २. गिरिसम- परीषहों और उपसर्गों को सहन करने में पर्वत के समान अडोल–अविचल होने से साधु गिरिसम हैं। ३. ज्वलन (अग्नि) सम— तपोजन्य तेज से समन्वित होने के कारण साधु अग्निसम है। अथवा जैसे अग्नि तृण, काष्ठ आदि ईंधन से तृप्त नहीं होती, उसी प्रकार साधु भी ज्ञानाभ्यास से तृप्त नहीं होने के कारण अग्निसम है। ४. सागरसम- जैसे सागर अपनी मर्यादा को नहीं लांघता इसी प्रकार साधु भी अपनी आचारमर्यादा का उल्लंघन नहीं करने से सागरसम है। अथवा समुद्र जैसे रत्नों का आकर होता है वैसे ही साधु भी ज्ञानादि रत्नों का भंडार होने से सागरसम है। ५. नभस्तलसम— जैसे आकाश सर्वत्र अवलंबन से रहित है, उसी प्रकार साधु भी किसी प्रसंग पर दूसरों का आश्रय–अवलंबन सहारा नहीं लेने से आकाशसम है। ६. तरुगणसम— जैसे वृक्षों को सींचने वाले पर राग और काटने वाले पर द्वेष नहीं होता, वे सर्वदा समान रहते हैं, इसी प्रकार साधु भी निन्दा-प्रशंसा, मान-अपमान में समवृत्ति वाले होने से तरुगण के समान है। ७. भ्रमरसम- जैसे भ्रमर अनेक पुष्पों से थोड़ा-थोड़ा रस लेकर अपनी उदरपूर्ति करता है, उसी प्रकार साधु भी अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा सा आहार ग्रहण करके उदरपूर्ति करने से भ्रमरसम है।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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