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अनुयोगद्वारसूत्र
इस प्रकार सामान्य से तो यह मतभिन्नता प्रतीत होती है। लेकिन आपेक्षित दृष्टि से विचार किया जाये तो यह सामासिक दृष्टिकोण का अंतर है, जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
यहां क्रोध, मान, माया और लोभ के क्षय को प्रशस्त इसलिए माना गया है कि ये क्रोधादि संसार के कारण हैं, अतएव संसार के कारणभूत इन क्रोधादि का क्षय प्रशस्त, शुभ होने से प्रशस्तभावक्षपणा है और इससे विपरीत ज्ञानादित्रय का क्षय अप्रशस्त इसलिए है कि आत्मगुणों की क्षीणता संसार का कारण है।
एक जगह 'प्रशस्त' विशेषण को 'भाव' का और दूसरी जगह 'क्षपणा' का विशेषण माना गया है। अतः प्रशस्त ज्ञान आदि गुणों के क्षय को प्रशस्तभावक्षपणा के रूप में एवं अप्रशस्त क्रोधादि के क्षय को अप्रशस्तभावक्षपणा के रूप में ग्रहण किया है। इसी आपेक्षित दृष्टि के कारण किसी-किसी प्रति में यहां — प्रस्तुत पाठ से अंतर प्रतीत होता है ।
इस प्रकार से निक्षेप के प्रथम भेद ओघनिष्पन्ननिक्षेप का वर्णन करने के अनन्तर अब द्वितीय भेद नामनिष्पन्न निक्षेप की प्ररूपणा प्रारंभ करते हैं । नामनिष्पन्ननिक्षेपप्ररूपणा
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५९३. से किं तं नामनिप्फण्णे ?
नामनिष्फण्णे सामाइए । से समासओ चउव्विहे पण्णत्ते । तं जहा—--- णामसामाइ ठवणासामाइए दव्वसामाइए भावसामाइए ।
[५९३ प्र.] भगवन्! (निक्षेप के द्वितीय भेद) नामनिष्पन्न निक्षेप का क्या स्वरूप है ?
[५९३ उ.] आयुष्मन्! नामनिष्पन्न सामायिक है। वह सामायिक चार प्रकार का है। यथा—१. नामसामायिक, २. स्थापनासामायिक, ३. द्रव्यसामायिक, ४. भावसामायिक ।
विवेचन — प्रस्तुत सूत्र नामनिष्पन्ननिक्षेप का वर्णन करने की भूमिका है।
सूत्र में नामनिष्पन्ननिक्षेप का लक्षण स्पष्ट करने के लिए 'सामाइए' पद दिया है। इसका अर्थ यह है कि पूर्व में अध्ययन, अक्षीण आदि पदों द्वारा किये गये सामान्य उल्लेख का पृथक् पृथक् उस-उस विशेष नामनिर्देश पूर्वक कथन करने को नामनिष्पन्ननिक्षेप कहते हैं ।
सूत्रगत सामायिक पद उपलक्षण है, अतएव सामायिक की तरह विशेष नाम के रूप में चतुर्विंशतिस्तव आदि कभी ग्रहण समझ लेना चाहिए ।
यह नामनिष्पन्ननिक्षेप भी पूर्व की तरह नामादि के भेद से चार प्रकार का है। सूत्रकार जैसे विशेष नाम के रूप सामायिक पदको माध्यम बना कर वर्णन कर रहे हैं, उसी प्रकार चतुर्विंशतिस्तव आदि नामों का भी वर्णन समझ लेना चाहिए।
अब सूत्रोक्त क्रम से नामादि सामायिक का वर्णन करते हैं ।
नाम - स्थापना - सामायिक
५९४. णाम-ठवणाओ पुव्वभणियाओ ।
[५९४] नामसामायिक और स्थापनासामायिक का स्वरूप पूर्ववत् जानना चाहिए ।