________________
अक्षीण निरूपण
५५४. से किं तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वज्झीणे ? जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वज्झीणे सव्वागाससेढी । से तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वज्झीणे । से तं नोआगमतो दव्वज्झीणे । से तं दव्वज्झीणे ।
[५५४ प्र.] भगवन्! ज्ञायकशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्य - अक्षीण का क्या स्वरूप है ? [५५४ उ.] आयुष्मन् ! सर्वाकाश- श्रेणि ज्ञायकशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्य - अक्षीण रूप है। यह नोआगम से द्रव्य- अक्षीण का वर्णन है और इसका वर्णन करने से द्रव्य-अक्षीण का कथन पूर्ण हुआ ।
विवेचन — उपर्युक्त सूत्र ५४७ से ५५४ तक अक्षीण के नाम, स्थापना और द्रव्य इन तीन प्रकारों का वर्णन पूर्वोक्त अध्ययन के अतिदेश के आधार से किया है। जिसका तात्पर्य यह है कि अध्ययन के प्रसंग में आवश्यक के अतिदेश के द्वारा जो और जैसा वर्णन किया है, वही और वैसा ही वर्णन यहां आवश्यक के स्थान पर अक्षीण शब्द को रखकर कर लेना चाहिए, लेकिन इतना विशेष है कि ज्ञायकशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्य-अक्षीण 'सर्वाकाश श्रेणी' रूप है। जिसका आशय यह है—
क्रमबद्ध एक-एक प्रदेश की पंक्ति को श्रेणी कहते हैं । अतएव लोक और अलोक रूप अनन्तप्रदेशी सर्व • आकाशद्रव्य की श्रेणी में से प्रतिसमय एक-एक प्रदेश का अपहार किये जाने पर भी अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालों में क्षीण नहीं हो सकने से वह सर्वाकाश की श्रेणी उभयव्यतिरिक्तद्रव्य-अक्षीण है ।
भाव - अक्षीण
५५५. से किं तं भावज्झीणे ?
भावज्झी दुविहे पण्णत्ते । तं जहा – आगमतो य नोआगमतो य ।
[५५५ प्र.] भगवन्! भाव-अक्षीण का क्या स्वरूप है ?
[५५५ उ. ] आयुष्मन् ! भाव-अक्षीण दो प्रकार का है, यथा—१. आगम से, २. नोआगम से ।
४२१
५५६. से किं तं आगमतो भावज्झीणे ?
आगमतो भावज्झीणे जाणए उवउत्ते । से तं आगमतो भावज्झीणे ।
[५५६ प्र.] भगवन्! आगमभाव-अक्षीण का क्या स्वरूप है ?
[५५६ उ.] आयुष्मन्! ज्ञायक जो उपयोग से युक्त हो— जो जानता हो और उपयोग सहित हो वह आगम की अपेक्षा भाव - अक्षीण है ।
५५७. से किं तं नोआगमतो भावज्झीणे ? नोआगमतो भावज्झीणे
दीवो ।
जह दीवा दीवसंत पइप्पए, दिप्पए य सो दीवसमा आयरिया दिप्पंति, परं च
दीवेंति ॥ १२६॥
से तं नोआगमतो भावज्झीणे । से तं भावज्झीणे । से तं अज्झीणे ।
[५५७ प्र.] भगवन् ! नोआगमभाव-अक्षीण का क्या स्वरूप है ?