________________
४२२
अनुयोगद्वारसूत्र [५५७ उ.] आयुष्मन् ! जैसे दीपक दूसरे सैकड़ों दीपकों को प्रज्वलित करके भी प्रदीप्त रहता है, उसी प्रकार आचार्य स्वयं दीपक के समान देदीप्यमान हैं और दूसरों (शिष्य वर्ग) को देदीप्यमान करते हैं। १२६
इस प्रकार नोआगमभाव-अक्षीण का स्वरूप जानना चाहिए। यही भाव-अक्षीण और अक्षीण की वक्तव्यता
विवेचन— प्रस्तुत सूत्रों में सप्रभेद भाव-अक्षीण का वर्णन कर अक्षीण की वक्तव्यता की समाप्ति का सूचन किया है।
उपयोग आगमभाव-अक्षीण कैसे ?– श्रुतकेवली के श्रुतोपयोग की अन्तर्मुहूर्तकालीन अनन्त पर्याय होती हैं। उनमें से प्रतिसमय एक-एक पर्याय का अपहार किये जाने पर भी अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल में उनका क्षय होना संभव नहीं हो सकने से वह आगमभाव अक्षीण रूप है।
नोआगमभाव-अक्षीणता के निर्दिष्ट उदाहरण का आशय यह है—अध्ययन-अध्यापन द्वारा श्रुत की निरंतरता रहना, श्रुत की परंपरा का क्षीण न होना भाव-अक्षीणता है। इसमें आचार्य का उपयोग आगम और वाक्-कायव्यापार रूप योग अनागम रूप है किन्तु बोधप्राप्ति में सहायक है। यही बताने के लिए आगम के साथ 'नो' शब्द दिया है। आय निरूपण
५५८. से किं तं आए ? आए चव्विहे पण्णत्ते । तं जहानामाए ठवणाए दव्वाए भावाए । [५५८ प्र.] भगवन् ! आय का क्या स्वरूप है ?
[५५८ उ.] आयुष्मन् ! आय के चार प्रकार हैं। यथा—१. नाम-आय, २. स्थापना-आय, ३. द्रव्य-आय, ४. भाव-आय।
विवेचन– अप्राप्त की प्राप्ति लाभ होने को आय कहते हैं। इसके भी अध्ययन, अक्षीण की तरह चार प्रकार हैं। नाम-स्थापना-द्रव्यआय
५५९. नाम-ठवणाओ पुव्वभणियाओ ।
[५५९] नाम-आय और स्थापना-आय का वर्णन पूर्वोक्त नाम और स्थापना आवश्यक के अनुरूप जानना चाहिए। .
५६०. से किं तं दव्वाए ? दव्वाए दुविहे पण्णत्ते । तं जहा—आगमतो य नोआगमतो य । [५६० प्र.] भगवन् ! द्रव्य-आय का क्या स्वरूप है ?
[५६० उ.] आयुष्मन् ! द्रव्य-आय के दो भेद इस प्रकार हैं—१. आगम से, २. नोआगम से। आगम-द्रव्य-आय
५६१. से किं तं आगमतो दव्वाए ?