________________
अक्षीण निरूपण
४१९
[५४६ उ.] आयुष्मन् ! नोआगमभाव-अध्ययन का स्वरूप इस प्रकार है
अध्यात्म में आने सामायिक आदि अध्ययन में चित्त को लगाने, उपार्जित-पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय करने निर्जरा करने और नवीन कर्मों का बंध नहीं होने देने का कारण होने से—(मुमुक्षु महापुरुष) अध्ययन की अभिलाषा करते हैं। १२५
यह नोआगमभाव-अध्ययन का स्वरूप है। इस प्रकार से भाव-अध्ययन और साथ ही अध्ययन का वर्णन पूर्ण हुआ।
विवेचन– प्रस्तुत सूत्रों में भावाध्ययन का वर्णन किया गया है।
आगमभाव-अध्ययन का स्वरूप स्पष्ट है। नोआगमभाव-अध्ययन विषयक स्पष्टीकरण इस प्रकार है
नोआगमभावाध्ययन में प्रयुक्त 'नो' शब्द एकदेशवाची है। क्योंकि ज्ञान और क्रिया के समुदाय रूप होने से सामायिक आदि अध्ययन आगम के एकदेश हैं। इसीलिए सामायिक आदि को नोआगम से अध्ययन कहा है।
___ गाथागत पदों का सार्थक्य-'अज्झप्पस्साऽऽणयणं' पद की संस्कृत छाया—अध्यात्ममानयनं-अध्यात्मम्आनयनम् है। इसमें अध्यात्म का अर्थ है चित्त और आनयन का अर्थ है लगाना। तात्पर्य यह हुआ कि सामायिक आदि में चित्त का लगाना अध्यात्मानयन कहा जाता है और इसका फल है—कम्माणं अवचओ.....नवाणं । अर्थात् सामायिक आदि में चित्त की निर्मलता होने के कारण कर्मनिर्जरा होती है, नवीन कर्मों का आश्रव-बंध नहीं होता है। अक्षीण निरूपण
५४७. से किं तं अज्झीणे ? अज्झीणे चउव्विहे पण्णत्ते । तं जहा—णामझीणे ठवणझीणे दव्वज्झीणे भावझीणे । [५४७ प्र.] भगवन् ! (ओघनिष्पन्ननिक्षेप के द्वितीय भेद) अक्षीण का क्या स्वरूप है ?
[५४७ उ.] आयुष्मन् ! अक्षीण के चार प्रकार हैं। यथा—१. नाम-अक्षीण, २. स्थापना-अक्षीण, ३. द्रव्यअक्षीण और ४. भाव-अक्षीण।
विवेचन- सूत्र में अक्षीण का वर्णन करना प्रारंभ किया है। अक्षीण का अर्थ पूर्व में बतलाया जा चुका है कि शिष्य-प्रशिष्य के क्रम से पठन-पाठन की परंपरा के चालू रहने से जिसका कभी क्षय न हो, उसे अक्षीण कहते हैं। अक्षीण के भी अध्ययन की तरह नामादि चार भेद हैं। नाम-स्थापना अक्षीण
५४८. नाम-ठवणाओ पुव्ववणियाओ ।
[५४८] नाम और स्थापना अक्षीण का स्वरूप पूर्ववत् (नाम और स्थापना आवश्यक के समान) जानना चाहिए। द्रव्य-अक्षीण
५४९. से किं तं दव्वज्झीणे ?