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समवतार निरूपण
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५२९. से किं तं दव्वसमोयारे ?
दव्वसमोयारे दुविहे पण्णत्ते । तं०—आगमतो य णोआगमतो य । जाव से तं भवियसरीरदव्वसमोयारे ।
[५२९ प्र.] भगवन् ! द्रव्यसमवतार का क्या स्वरूप है ?
[५२९ उ.] आयुष्मन् ! द्रव्यसमवतार दो प्रकार का कहा है—१. आगमद्रव्यसमवतार, २. नोआगमद्रव्यसमवतार। यावत् आगमद्रव्यसमवतार का तथा नोआगमद्रव्यसमवतार के भेद ज्ञायकशरीर और भव्यशरीर नोआगमद्रव्यसमवतार का स्वरूप पूर्ववत् द्रव्यावश्यक के प्रकरण में कथित भेदों के समान जानना चाहिए।
विवेचन— यहां नाम, स्थापना समवतार का और द्रव्यसमवतार के दो भेदों का वर्णन किया है। स्पष्टीकरण इस प्रकार है-नामसमवतार और स्थापनासमवतार, इन दोनों का वर्णन तो नाम-आवश्यक और स्थापना-आवश्यक के अनुरूप जानना चाहिए। परन्तु आवश्यक के स्थान पर समवतार पद का प्रयोग करना चाहिए। ___आगम और नोआगम की अपेक्षा द्रव्यसमवतार के दो भेद हैं। इनमें से नोआगमद्रव्यसमवतार ज्ञायकशरीर, भव्यशरीर, तद्व्यतिरिक्त के भेद से तीन प्रकार का है। आगमद्रव्यसमवतार और नोआगम ज्ञायकशरीरद्रव्यसमवतार एवं भव्यशरीरद्रव्यसमवतार का स्वरूप पूर्वोक्त द्रव्यावश्यकं के वर्णन जैसा ही जानना चाहिए। शेष रहे ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्रदव्यसमवतार का वर्णन इस प्रकार है
५३०. (१) से किं तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वसमोयारे ?
जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वसमोयारे तिविहे पण्णत्ते । तं जहा—आयसमोयारे परसमोयारे तदुभयसमोयारे । सव्वदव्वा वि य णं आयसमोयारेणं आयभावे समोयरंति, परसमोयारेणं जहा कुंडे बदराणि, तदुभयसमोयारेणं जहा घरे थंभो आयभावे य, जहा घडे गीवा आयभावे य ।
[५३०-१ प्र.] भगवन्! ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यसमवतार कितने प्रकार का है ?
[५३०-१ उ.] आयुष्मन् ! ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यसमवतार तीन प्रकार का है, यथा—१. आत्मसमवतार, २. परसमवतार, ३. तदुभयसमवतार।
आत्मसमवतार की अपेक्षा सभी द्रव्य आत्मभाव अपने स्वरूप में ही रहते हैं, परसमवतारापेक्षया कुंड में बेर की तरह परभाव में रहते हैं तथा तदुभयसमवतार से (सभी द्रव्य) घर में स्तम्भ अथवा घट में ग्रीवा (गर्दन) की तरह परभाव तथा आत्मभाव-दोनों में रहते हैं। _ विवेचन प्रस्तुत सूत्र में तद्व्यतिरिक्तद्रव्यसमवतार का स्वरूप स्पष्ट किया है। प्रत्येक द्रव्य-पदार्थ कहां रहता है ? इसका विचार करने का आधार है निश्चय और व्यवहार नयदृष्टियों का गौण-मुख्य भाव । स्वस्वरूप के विचार में निश्चयनय की और परभाव का विचार करने में व्यवहारनय की मुख्यता है। इसलिए निश्चयनय से समस्त द्रव्यों के रहने का विचार करने पर उत्तर होता है कि सभी द्रव्य निजस्वरूप में रहते हैं। निजस्वरूप से भिन्न उनका कोई अस्तित्व नहीं है तथा परसमवतार से—व्यवहारनय से विचार करने पर उत्तर होता है कि परभाव में भी रहते हैं। उभयरूपता युगपत् निश्चय-व्यवहारनयाश्रित है। अतः तदुभयसमवतार से विचार किये जाने पर आत्मसमवतार