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वक्तव्यता निरूपण
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परसिद्धान्त दोनों का कथन यावत् उपदर्शन किया जाता है, उसे स्वसमय-परसमयवक्तव्यता कहते हैं।
विवेचनजो व्याख्या स्वसमय और परसमय उभय रूप संभव हो वह स्वसमय-परसमयवक्तव्यता कहलाती है। जैसे
आगारमावसंता वा, आरण्णा वावि पव्वया ।
इमं दरिसणमावना, सव्वदुक्खा विमुच्चई ॥ अर्थात् जो व्यक्ति घर में रहते हैं—गृहस्थ हैं, अथवा वनवासी हैं, अथवा प्रव्रजित (शाक्यादि) हैं, वे यदि हमारे सिद्धान्त को स्वीकार, धारण, ग्रहण कर लेते हैं तो सभी (शारीरिक, मानसिक) दुखों से सर्वथा विमुक्त हो जाते हैं।
इस कथन की उभयमुखी वृत्ति होने से जैन, बौद्ध, सांख्य आदि जो कोई भी इसका अर्थ करेगा वह अपने मतानुसार होने से स्वसमयवक्तव्यता रूप और इतर के लिए परसमयवक्तव्यता रूप है। इसीलिए इसे स्व-परसमयों की वक्तव्यता कहा है। वक्तव्यता के विषय में नयदृष्टियां
५२५. (१) इयाणिं को णओ कं वत्तव्वयमिच्छति ?
तत्थ णेगम-संग्रह-ववहारा तिविहं वत्तव्वयं इच्छंति । तं जहा ससमयवत्तव्वयं परसमयवत्तव्वयं ससमय-परसमयवत्तव्वयं ।
[५२५-१ प्र.] भगवन् ! (इन तीनों वक्तव्यताओं में से) कौन नय किस वक्तव्यता को स्वीकार करता है ? [५२५-१ उ.] आयुष्मन् ! नैगम, संग्रह और व्यवहार नय तीनों प्रकार की वक्तव्यता को स्वीकार करते हैं।
(२) उज्जुसुओ दुविहं वत्तव्वयं इच्छति । तं जहा—ससमयवत्तव्वयं परसमयवत्तव्वयं । तत्थ णं जा सा ससमयवत्तव्वया सा ससमयं पविट्ठा, जा सा परसमयवत्तव्वया सा परसमयं पविट्ठा, तम्हा दुविहा वत्तव्वया, णत्थि तिविहा वत्तव्वया ।
[५२५-२] ऋजुसूत्रनय स्वसमय और परसमय—इन दो वक्तव्यताओं को ही मान्य करता है। क्योंकि (स्वसमय-परसमयवक्तव्यता रूप तीसरी वक्तव्यता में से) स्वसमयवक्तव्यता प्रथम भेद स्वसमयवक्तव्यता में और परसमय की वक्तव्यता द्वितीय भेद परसमयवक्तव्यता में अन्तर्भूत हो जाती है। इसलिए वक्तव्यता के दो ही प्रकार हैं, किन्तु त्रिविध वक्तव्यता नहीं है।
(३) तिण्णि सद्दणया [एगं] ससमयवत्तव्वयं इच्छंति, नत्थि परसमयवत्तव्वयं । कम्हा ? जम्हा परसमए अणढे अहेऊ असब्भावे अकिरिया उम्मग्गे अणुवएसे मिच्छादंसणमिति कटु, तम्हा सव्वा ससमयवत्तव्वया, णत्थि परसमयवत्तव्वया णत्थि ससमयपरसमयवत्तव्वया । से तं वत्तव्वया ।
[५२५-३] तीनों शब्दनय (शब्द, समभिरूढ एवंभूत नय) एक स्वसमयवक्तव्यता को ही मान्य करते हैं। उनके मतानुसार परसमयवक्तव्यता नहीं है। क्योंकि परसमय अनर्थ, अहेतु, असद्भाव, अक्रिय (निष्क्रिय),