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________________ अनुयोगद्वारसूत्र इस समय अनवस्थितपल्य के द्वारा शलाकापल्य को पूर्ण भरें और जब शलाकापल्य पूरा भर जाये तब जो द्वीप, समुद्र हो, उस द्वीप या समुद्र के बराबर क्षेत्र जितने अनवस्थितपल्य की कल्पना करके उसे भी सरसों द्वारा भर लें। इस प्रकार चारों पल्य पूर्ण भरें । ३९६ इस प्रकार करने पर जितने द्वीपों और समुद्रों में सरसों का एक-एक दाना पड़ा उन सब द्वीपों की और समुद्रों की जो संख्या हुई उसमें चारों पल्यों में भरे हुए सरसों के दानों की संख्या को मिलाने से जो संख्या हो, उसमें एक को कम कर देने पर उत्कृष्ट संख्यात का प्रमाण निकलता है। अर्थात् प्रत्येक द्वीप, समुद्र में डाले गये सरसों के दाने और चारों पल्यों के दानों को एकत्रित करके उसमें एक को कम करने पर प्राप्त राशि उत्कृष्ट संख्यात है । सिद्धान्त में जहां कहीं भी संख्यात शब्द का व्यवहार हुआ है वहां सर्वत्र मध्यम संख्यात ग्रहण हुआ जानना चाहिए। इस प्रकार से त्रिविध संख्यात का स्वरूप बतलाने के पश्चात् अब नवविध असंख्यात का स्वरूप स्पष्ट करते हैं। परीतासंख्यात निरूपण ५०९. एवामेव उक्कोसए संखेज्जए रूवं पक्खित्तं जहण्णयं परित्तासंखेज्जयं भवति, ते परं अजहण्णमणुक्कोसयाइं ठाणाई जाव उक्कोसयं परित्तासंखेज्जयं ण पावइ । [५०९] इसी प्रकार उत्कृष्ट संख्यात संख्या में रूप (एक) का प्रक्षेप करने से जघन्य परीतासंख्यात होता है। तदनन्तर (परीतासंख्यात के) अजघन्य — अनुत्कृष्ट (मध्यम) स्थान हैं, जहां तक उत्कृष्ट परीतासंख्यात स्थान प्राप्त नहीं होता है। ५१०. उक्कोसयं परित्तासंखेज्जयं केत्तियं होति ? उक्कोसयं परित्तासंखेज्जयं जहण्णयं परित्तासंखेज्जयं जहण्णयपरित्तासंखेज्जयमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णब्भासो रूवूणो उक्कोसयं परित्तासंखेज्जयं होति, अहवा जहन्नयं जुत्तासंखेज्जयं रूवणं उक्कोसयं परित्तासंखेज्जयं होइ । [५१० प्र.] भगवन् ! उत्कृष्ट परीतासंख्यात का क्या प्रमाण है ? [५१० उ.] आयुष्मन्! जघन्य परीतासंख्यात राशि को जघन्य परीतासंख्यात राशि से परस्पर अभ्यास गुणित करके रूप (एक) न्यून करने पर उत्कृष्ट परीतासंख्यात का प्रमाण होता है। अथवा एक न्यून जघन्य युक्तासंख्यात उत्कृष्ट परीतासंख्यात का प्रमाण है । विवेचन— उक्त दो सूत्रों में असंख्यात के प्रथम भेद परीतासंख्यात के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट इन तीनों १. २. A यह कार्मग्रन्थिक मत है। किन्तु अनुयोगद्वार मलधारीया वृत्ति में संकेत है........ यदा तु चत्वारोऽपि परिपूर्णा भवन्ति तदोत्कृष्टं सङ्ख्येकं रूपाधिकम् भवति । अर्थात् अनवस्थित आदि पल्यों के खाली करने और भरने के क्रम से जितने द्वीप, समुद्र व्यास हुए उन दोनों की संख्या मिलाने पर जो संख्या आती है वह संख्या एक सर्षप अधिक 'उत्कृष्ट संख्येय' संख्या जानना चाहिए । — अनुयोग. मलधारीयावृत्ति पृ. २३७ सिद्धते जत्थ जत्थ संखिज्जगगहणं कतं तत्थ तत्थ सव्वं अजहन्नमगुक्कोसयं दट्ठव्वं । —अनुयोगद्वारचूर्णि
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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