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________________ ३९४ अनुयोगद्वारसूत्र स्थान) से उस द्वीप या समुद्र तक की लम्बाई-चौड़ाई वाला नया पल्य बनाया जाये। यह पहला उत्तर अनवस्थितपल्य है। इसी प्रकार आगे-आगे मूल स्थान से लेकर समाप्त होने वाले सरसों के दाने के द्वीप या समुद्र तक के विस्तार वाले अनवस्थितपल्यों का निर्माण किया जाये। ये अनवस्थितपल्य कहां तक बनाना, इसका स्पष्टीकरण आगे के वर्णन से हो जाएगा। शलाकापल्य— एक-एक साक्षीभूत सरसों के दाने से भरे जाने के कारण इसको शलाकापल्य कहते हैं । शलाकापल्य में डाले गये सरसों के दानों की संख्या से यह जाना जाता है कि इतनी बार उत्तर अनवस्थितपल्य खाली हुए हैं। प्रतिशलाकापल्य— प्रतिसाक्षीभूत सरसों के दानों से भरे जाने के कारण यह प्रतिशलाकापल्य कहलाता है । हर बार शलाकापल्य के खाली होने पर एक-एक सरसों का दाना प्रतिशलाकापल्य में डाला जाता है। प्रतिशलाका - पल्य में डाले गये दानों की संख्या से यह ज्ञात होता है कि इतनी बार शलाकापल्य भरा जा चुका है। महाशलाकापल्य—–— महासाक्षीभूत सरसों के दानों द्वारा भरे जाने के कारण इसे महाशलाकापल्य कहते हैं। प्रतिशलाकापल्य के एक-एक बार भरे जाने और खाली हो जाने पर एक-एक सरसों का दाना महाशलाका पल्य में डाला जाता है, जिससे यह ज्ञात होता है कि इतनी बार प्रतिशलाकापल्य भरा गया और खाली किया गया है। उत्कृष्ट संख्यात का प्रमाण बताने में इन चारों पल्यों के उपयोग करने की विधि इस प्रकार है— पल्योपयोग विधि— सबसे पहला जो अनवस्थित पल्य है, इसके पहले प्रकार (मूल अनवस्थितपल्य) को सरसों के दानों से शिखापर्यन्त ठांस-ठांस कर परिपूर्ण भर देने के बाद उसमें से एक-एक सरसों का दाना जम्बूद्वीप आदि प्रत्येक द्वीप - समुद्र में डालें । इस प्रकार सरसों के दाने डालने पर जिस द्वीप या समुद्र में यह मूल अनवस्थितपल्य खाली हो जाये तब मूलस्थान – जम्बूद्वीप से लेकर उतने लंबे-चौड़े क्षेत्रप्रमाण और ऊंचाई में मूल अनवस्थितपल्य जितना दूसरा उत्तर अनवस्थित पल्य बनायें और इसको भी पूर्ववत् सरसों के दानों से शिखापर्यन्त परिपूर्ण भरें । इस प्रथम उत्तर अनवस्थितपल्य में से सरसों का एक-एक दाना मूल अनवस्थितपल्य के सरसों के दाने जिस द्वीप या समुद्र में डालने पर समाप्त हुए थे, पुनः उसके आगे के द्वीप- समुद्र में क्रमशः डालें । इस प्रकार एकएक दाना डालने से जब वह पल्य खाली हो जाये तब एक दाना शलाकापल्य में डाला जाये। इस प्रकार जब-जब उत्तरोत्तर विशाल अनवस्थितपल्य खाली होता जाये तब-तब एक-एक दाना शलाकापल्य में डालते जाना चाहिए। इस प्रकार करते-करते जब शलाकापल्य पूर्ण भर जाये तब जिस द्वीप या समुद्र में अनवस्थितपल्य खाली हुआ हो, उस द्वीप या समुद्र के बराबर क्षेत्र के अनवस्थितपल्य की कल्पना करके उसे सरसों से भरें। उसको खाली करने पर साक्षीभूत सरसों का दाना शलाकापल्य में समाते रखे जाने की स्थिति में न होने के कारण उसे जैसा का तैसा भरा रखना चाहिए और उस शलाकापल्य के दानों को लेकर एक-एक द्वीपसमुद्र में एक-एक सरसों का दाना डालें। इस प्रकार जब शलाकापल्य खाली हो जाये तब एक सरसों का दाना प्रतिशलाकापल्य में डालें । इस समय अनवस्थितपल्य भरा हुआ, शलाकापल्य खाली और प्रतिशलाकापल्य में एक सरसों का दाना होता है ।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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