SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 444
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमाणाधिकारनिरूपण ३९३ जघन्य संख्यात— जघन्य और मध्यम संख्यात का स्वरूप सुगम है। दो की संख्या जघन्य संख्यात है। क्योंकि जिसमें भेद-पार्थक्य प्रतीत हो उसे संख्या कहते हैं और भेद की प्रतीति कम से कम दो में होने से दो को ही जघन्य संख्यात माना जाता है। __ मध्यम संख्यात- जघन्य संख्यात—दो से ऊपर और उत्कृष्ट संख्यात से पूर्व तक की अन्तरालवर्ती सब संख्यायें मध्यम संख्यात हैं। इसके लिए कल्पना से मान लें कि १०० की संख्या उत्कृष्ट और दो की संख्या जघन्य संख्यात है तो २ और १०० के बीच ३ से लेकर ९९ तक की सभी संख्यायें मध्यम संख्यात हैं। । उत्कृष्ट संख्यात— दो से लेकर दहाई, सैकड़ा, हजार, लाख, करोड़, शीर्षप्रहेलिका आदि जो संख्यात की राशियां हैं, उनका तो किसी न किसी प्रकार कथन किया जाना शक्य है, लेकिन संख्या इतनी ही नहीं है। अतएव उसके बाद की संख्या का कथन उपमा द्वारा ही संभव है। इसलिए सूत्र में उपमा कल्पना का आधार लेकर उत्कृष्ट संख्यात का स्वरूप स्पष्ट किया है। ___शास्त्र में सत् और असत् दो प्रकार की कल्पना होती है। कार्य में परिणत हो सकने वाली कल्पना को सत्कल्पना और जो किसी वस्तु का स्वरूप समझाने में उपयोगी तो हो, किन्तु कार्य में परिणत न की जा सके उसे असत्कल्पना कहते हैं। सूत्रोक्त पल्य का विचार असत्कल्पना है और उसका प्रयोजन उत्कृष्ट संख्यात का स्वरूप समझाना मात्र है। सूत्र में जो एक लाख योजन की लम्बाई-चौड़ाई, तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन, तीन कोश, एक सौ अट्ठाईस धनुष और कुछ अधिक साढे तेरह अंगुल की परिधि वाले एक पल्य का उल्लेख किया है, वह जम्बूद्वीप की लम्बाई-चौड़ाई और परिधि के बराबर है और इसकी गहराई एक हजार योजन प्रमाण और ऊंचाई साढे आठ योजन प्रमाण ऊंची पद्मवरवेदिका प्रमाण बताई है। यह ऊंचाई और गहराई मेरु पर्वत की समतल भूमि से समझना चाहिए। सारांश यह है कि वह पल्य तल से शिखा पर्यन्त १००८.१/२ योजन होगा। ____ इसी प्रकार की लंबाई-चौड़ाई, गहराई-ऊंचाई और परिधि वाले तीन और पल्यों की कल्पना करें। इन चारों पल्यों के नाम क्रमशः १. अनवस्थित, २. शलाका, ३. प्रतिशलाका और ४. महाशलाका हैं। जिनके नामकरण का कारण इस प्रकार है ___ अनवस्थितपल्य- आगे बढ़ते जाने पर नियत स्वरूप के अभाव वाले पल्य को अनवस्थितपल्य कहते हैं। यह दो प्रकार का है—१. मूल अनवस्थितपल्य और २. उत्तर अनवस्थितपल्य । यद्यपि पहला मूल अनवस्थितपल्य नियत माप वाला होने से अनवस्थित नहीं, किन्तु आगे के पल्यों की अनवस्थितता का कारण होने से इसे भी अनवस्थित कहते हैं। उसके बाद के उत्तरवर्ती पल्य क्रमशः बढ़ते-बढ़ते जाने के कारण अनियत परिमाण वाले होने से अनवस्थित कहलाते हैं। ये अनवस्थितपल्य अनेक बनते हैं, जिनकी ऊंचाई १००८.१/२ योजनमान नियत है लेकिन मूल अनवस्थितपल्य के सिवाय आगे के पल्यों की लम्बाई, चौड़ाई एक-सी नहीं रहती है, उत्तरोत्तर अधिकाधिक है। जैसे जम्बूद्वीप प्रमाण मूल अनवस्थितपल्य को सरसों के दानों से भरकर जम्बूद्वीप से लेकर आगे के प्रत्येक समुद्र, द्वीप में एकएक दाना डालते जाने के बाद जिस द्वीप या समुद्र में मूल अनवस्थितपल्य खाली हो जाये तब जम्बूद्वीप (मूल
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy