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________________ ३९२ अनुयोगद्वारसूत्र किंचिविसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते । से णं पल्ले सिद्धत्थयाणं भरिए । ततो णं तेहिं सिद्धत्थएहिं दीव-समुद्दाणं उद्धारे घेप्पति, एगे दीवे एगे समुद्दे २ एवं पक्खिप्पमाणेहिं २ जावइया णं दीव-समुद्दा तेहिं सिद्धत्थएहिं अप्फुण्णा एस णं एवतिए खेत्ते पल्ले आइढे । से णं पल्ले सिद्धत्थयाणं भरिए । ततो णं तेहिं सिद्धत्थएहिं दीव-समुद्दाणं उद्धारे घेप्पति एगे दीवे एगे समुद्दे २ एवं पक्खिप्पमाणेहिं २ जावइया णं दीव-समुद्दा तेहिं सिद्धत्थएहिं अप्फुन्ना एस णं एवतिए खेत्ते पल्ले पढमा सलागा, एवइयाणं सलागाणं असंलप्पा लोगा भरिया तहा वि उक्कोसयं संखेजयं ण पावइ । जहा को दिटुंतो ? से जहाणामए मंचे सिया आमलगाणं भरिते, तत्थ णं एगे आमलए पक्खित्ते से माते, अण्णे वि पक्खित्ते से वि माते, अन्ने वि पक्खित्ते से वि माते, एवं पक्खिप्पमाणे २ होही से आमलए जम्मि पक्खित्ते से मंचए भरिजिहिइ जे वि तत्थ आमलए न माहिति । [५०८ प्र.] भगवन् ! उत्कृष्ट संख्यात कितने प्रमाण में होता है ? [५०८ उ.] आयुष्मन् ! उत्कृष्ट संख्यात की प्ररूपणा इस प्रकार करूंगा—(असत्कल्पना से) एक लाख योजन लम्बा-चौड़ा और तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन, तीन कोश एक सौ अट्ठाईस धनुष एवं साढ़े तेरह अंगुल से कुछ अधिक परिधि वाला कोई एक (अनवस्थित नामक) पल्य हो। (उसकी गहराई रत्नप्रभापृथ्वी के रत्नकाण्ड से भी नीचे स्थित वज्रकाण्ड पर्यन्त १००० योजन हो और ऊंचाई पद्मवरवेदिका जितनी साढ़ेआठ योजन अर्थात् तल से शिखा तक १००८.१/२ योजन हो। इस पल्य को सर्षपों—सरसों के दानों से भर दिया जाये। उन सर्षपों से द्वीप और समुद्रों का उद्धार-प्रमाण निकाला जाता है अर्थात् उन सर्षपों में से जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र आदि के क्रम से एक को द्वीप में, एक को समुद्र में प्रक्षेप करते-करते उन दानों से जितने द्वीप-समुद्र स्पृष्ट हो जायें ---उतने क्षेत्र का अनवस्थित पल्य कल्पित करके उस पल्य को सरसों के दानों से भर दिया जाये। तदनन्तर उन सरसों के दानों से द्वीप-समुद्रों की संख्या का प्रमाण जाना जाता है। अनुक्रम से एक द्वीप में और एक समुद्र में इस तरह प्रक्षेप करते-करते जितने द्वीप-समुद्र उन सरसों के दानों से भर जाएं, उनके समाप्त होने पर एक दाना शलाकापल्य में डाल दिया जाए। इस प्रकार के शलाका रूप पल्य में भरे सरसों के दानों से असंलप्य अकथनीय लोक भरे हुए हों तब भी उत्कृष्ट संख्या का स्थान प्राप्त नहीं होता है। इसके लिए कोई दृष्टान्त दीजिये। जिज्ञासु ने पूछा। आचार्य ने उत्तर दिया-जैसे कोई एक मंच हो और वह आंवलों से पूरित हो, तदनन्तर एक आंवला डाला तो वह भी समा गया, दूसरा डाला तो वह भी समा गया, तीसरा डाला तो वह भी समा गया, इस प्रकार प्रक्षेप करतेकरते अंत में एक आंवला ऐसा होगा कि जिसके प्रक्षेप से मंच परिपूर्ण भर जाता है। उसके बाद आंवला डाला जाये तो वह नहीं समाता है। इसी प्रकार बारंबार डाले गये सर्षपों से जब असंलप्य—बहुत से पल्य अंत में आमूलशिख पृरित हो जायें, उनमें एक सर्पप जितना भी स्थान न रहे तब उत्कृष्ट संख्या का स्थान प्राप्त होता है। विवेचन— प्रस्तुत दो सूत्रों में संख्यात गणनासंख्या के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट—इन तीनों भेदों का स्वरूप स्पष्ट किया है।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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