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अनुयोगद्वारसूत्र
भावशंख के प्रति अति व्यवहित होने से उन्हें शंख के रूप में मान्य नहीं करते।
प्राकृत 'संखा' शब्द के संख्या और शंख ये दो रूप होने से प्रस्तुत निरूपण में जहां जो रूप घटित हो सकता हो, वह घटित कर लेना चाहिए। औपम्यसंख्या निरूपण
४९२. (१) से किं तं ओवम्मसंखा ?
ओवम्मसंखा चउव्विहा पण्णत्ता । तं जहा—अत्थि संतयं संतएणं उवमिज्जइ १ अस्थि संतयं असंतएणं उवमिजइ२ अस्थि असंतयं संतएणं उवमिज्जइ ३ अस्थि असंतयं असंतएणं उवमिज्जइ ४ ।
[४९२-१ प्र.] भगवन् ! औपम्यसंख्या का क्या स्वरूप है ?
[४९२-१ उ.] आयुष्मन् ! (उपमा देकर किसी वस्तु के निर्णय करने को औपम्यसंख्या कहते हैं।) उसके चार प्रकार हैं। जैसे--
१. सद् वस्तु को सद् वस्तु की उपमा देना। २. सद् वस्तु को असद् वस्तु से उपमित करना। ३. असद् वस्तु को सद् वस्तु की उपमा देना। ४. असद् वस्तु को असद् वस्तु की उपमा देना।
विवेचन— सूत्रार्थ स्पष्ट है। यहां औपम्यसंख्या के चार प्रकार बतलाए हैं, जिनका आगे वर्णन करते हैं। सद्-सद्प औपम्यसंख्या
- (२) तत्थ संतयं संतएणं उवमिज्जइ, जहा—संता अरहंता संतएहिं पुरवरेहिं संतएहिं कवाडएहिं संतएहिं वच्छएहिं उवमिजंति, तं जहा
पुरवरकवाडवच्छा फलिहभुया दुंदुभित्थणियघोसा ।
सिरिवच्छंकियवच्छा सव्वे वि जिणा चउव्वीसं ॥ ११९॥ [४९२-२] इनमें से जो सद् वस्तु को सद् वस्तु से उपमित किया जाता है, वह इस प्रकार हैसद्प अरिहंत भगवन्तों के प्रशस्त वक्षस्थल को सद्प श्रेष्ठ नगरों के सत् कपाटों की उपमा देना, जैसे
सभी चौबीस जिन-तीर्थंकर प्रधान-उत्तम नगर के (तोरणद्वार-फाटक के) कपाटों के समान वक्षस्थल, अर्गला के समान भुजाओं, देवदुन्दुभि या स्तनित (मेघ के निर्घोष) के समान स्वर और श्रीवत्स (स्वस्तिक विशेष) से अंकित वक्षस्थल वाले होते हैं। ११९
- विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में सद्रूप पदार्थ को सद्रूप पदार्थ से उपमित किया गया है। चौबीस जिन भगवान् सद्रूप हैं और नगर के कपाटों का भी अस्तित्व है। सद्रूप कपाटों से अरिहंत भगवन्तों के वक्षःस्थल को जो उपमित किया गया है, उसमें कपाट उपमान है और अरिहंत भगवन्तों का वक्षःस्थल उपमेय है। इसी प्रकार उनकी भुजाओं आदि के विषय में भी समझना चाहिए। तात्पर्य यह है कि यदि कोई तीर्थंकर के वक्षःस्थल आदि कैसे होते हैं ? यह