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प्रमाणाधिकारनिरूपण
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४९०. अभिमुहनामगोत्ते णं भंते ! अभिमुहनामगोत्ते त्ति कालतो केवचिरं होति ? जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । [४९० प्र.] भगवन् ! अभिमुखनामगोत्र (शंख) का अभिमुखनामगोत्र नाम कितने काल तक रहता है ? [४९० उ.] आयुष्मन् ! जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल रहता है।
विवेचन- उक्त प्रश्नोत्तर का तात्पर्य यह है कि जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त अभिमुख नामगोत्र वाला रहकर बाद में भावशंख रूप पर्याय को प्राप्त हो जाता है। इसी प्रकार एकभविक और बद्धायुष्क के लिए भी समझना चाहिए कि वे जघन्य और उत्कृष्ट वालस्थिति के बाद अवश्य ही भावरूपता को प्राप्त हो जाते हैं। एकभविक आदि शंखविषयक दृष्टि
४९१. इयाणिं को णओ कं संखं इच्छति ?
तत्थ णेगम-संगह-ववहारा तिविहं संखं इच्छंति, तं जहा—एक्कभवियं बद्धाउयं अभिमुहनामगोत्तं च । उजुसुओ दुविहं संखं इच्छति, तं जहा—बद्धाउयं च अभिमुहनामगोत्तं च । तिण्णि सद्दणया अभिमुहणामगोत्तं संखं इच्छंति । से तं जाणयसरीर-भवियसरीरवइरित्ता दव्वसंखा । से तं नोआगमओ दव्वसंखा । से तं दव्वसंखा ।
[४९१ प्र.] भगवन् ! कौन नय इन तीन शंखों में से किस शंख को मानता है ?
[४९१ उ.] आयुष्मन् ! नैगमनय, संग्रहनय और व्यवहारनय एकभविक, बद्धायुष्क और अभिमुखगोत्रनाम तीनों प्रकार के शंखों को शंख मानते हैं। ऋजुसूत्रनय १. बद्धायुष्क और २. अभिमुखनामगोत्र, ये दो प्रकार के शंख स्वीकार करता है। तीनों शब्दनय मात्र अभिमुखनामगोत्र शंख को ही शंख मानते हैं।
इस प्रकार ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यशंख का स्वरूप जानना चाहिए। यही नोआगम द्रव्यशंख (संख्या) का स्वरूप है और इसी के साथ द्रव्यसंख्या का वर्णन पूर्ण हुआ।
विवेचन– प्रस्तुत सूत्र में तद्व्यतिरिक्त शंख (संख्या) के विषय में नयों का मंतव्य स्पष्ट करते हुए द्रव्यसंख्याप्रमाण की समाप्ति का कथन किया है।
__ नैगम आदि प्रथम तीन नय स्थूल दृष्टि वाले होने से तीनों प्रकार के शंखों को शंख रूप में मानते हैं। क्योंकि वे आगे होने वाले कार्य के कारण में कार्य का उपचार करके वर्तमान में उसे कार्य रूप में मान लेते हैं, जैसे भविष्य में राजा होने वाले राजकुमार को भी राजा कहते हैं। इसी प्रकार एकभविक, बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र, ये तीनों प्रकार के द्रव्यशंख अभी तो नहीं किन्तु भविष्य में भावशंख होंगे, इसीलिए ये तीनों नय इनको भावशंख रूप में स्वीकार करते हैं।
ऋजुसूत्रनय पूर्व नयत्रय की अपेक्षा विशेष शुद्ध है। अतः यह बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र—इन दो प्रकार के शंखों को मानता है। इसका मत है कि एकभविक जीव को शंख नहीं मानना चाहिए, क्योंकि वह भावशंख से अतिव्यवहित—बहुत अन्तर पर है। उसे शंख मानने में अतिप्रसंग दोष होगा।
शब्द, समभिरूढ और एवंभूत नय ऋजुसूत्रनय से भी शुद्ध हैं। इस कारण भावशंख के समीप होने से तीसरे—अभिमुखनामगोत्र शंख को तो शंख मानते हैं, किन्तु प्रथम दोनों प्रकार के (एकभविक, बद्धायुष्क) शंख