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________________ प्रमाणाधिकारनिरूपण ३८१ आप पतित होने वाले शरीर को चुय (च्युत) शरीर, विषादि के द्वारा आयु के छिन्न होने पर निर्जीव हुए शरीर को ( चइत्त) च्यावितशरीर तथा संलेखना संथारापूर्वक स्वेच्छा से त्यागे गये शरीर को चत्तदेह (त्यक्तशरीर) कहते हैं। भव्यशरीरद्रव्यसंख्या निरूपण ४८६. से किं तं भवियसरीरदव्वसंखा ? भवियसरीरदव्वसंखा जे जीवे जोणीजम्मणणिक्खंते इमेणं चेव आदत्तएणं सरीरसमुस्सएणं जिणदिटेणं भावेणं संखा ति पयं सेकाले सिक्खिस्सति, जहा को दिलुतो ? अयं घयकुंभे भविस्सति । से तं भवियसरीरदळसंखा । [४८६ प्र.] भगवन् ! भव्यशरीरद्रव्यसंख्या का क्या स्वरूप है ? [४८६ उ.] आयुष्मन् ! जन्म समय प्राप्त होने पर जो जीव योनि से बाहर निकला और भविष्य में उसी शरीरपिंड द्वारा जिनोपदिष्ट भावानुसार संख्या पद को सीखेगा (वर्तमान में सीख नहीं रहा है) ऐसे उस जीव का वह शरीर भव्यशरीरद्रव्यसंख्या है। [प्र.] इसका कोई दृष्टान्त है ? [उ.] (जैसे घी भरने के लिए कोई घड़ा हो किन्तु अभी उसमें घी नहीं भरा हो तो उसके लिए कहना) यह घृतकुंभ-घी का घड़ा होगा। यह भव्यशरीरद्रव्यसंख्या का स्वरूप है। विवेचन- सूत्र में भव्यशरीरद्रव्यसंख्या (शंख) का स्वरूप बताया है। यह भविष्यकालीन योग्यता की अपेक्षा जानना चाहिए। पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा भावी पर्याय की मुख्यता से यह भेद बनता है। ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यशंख ४८७. से किं तं जाणयसरीर-भवियसरीरवइरित्ता दव्वसंखा ? जाणयसरीर-भवियसरीरवइरित्ता दव्वसंखा तिविहा पण्णत्ता । तं जहा—एगभविए बद्धाउए अभिमुहणामगोत्ते य । [४८७ प्र.] भगवन् ! ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यशंख का क्या स्वरूप है ? [४८७ उ.] आयुष्मन् ! ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यशंख के तीन प्रकार हैं—१. एकभविक, २. बद्धायुष्क और ३. अभिमुखनामगोत्र । ____ विवेचन- इस सूत्र में ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्त-नोआगमद्रव्यशंख का भेदमुखेन स्वरूप बतलाया है। संक्षेप में इसके लिए 'तद्व्यतिरिक्तनोआगमद्रव्य' शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। एकभविक आदि का आशय- जिस जीव ने अभी तक शंखपर्याय की आयु का बंध नहीं किया है, परन्तु मरण के अनन्तर शंखपर्याय प्राप्त करने वाला है उसे एकभविक कहते हैं । जिस जीव ने शंखपर्याय में उत्पन्न होने योग्य आयु का बंध कर लिया है, ऐसा जीव बद्धायुष्क कहलाता है। निकट भविष्य में जो जीव शंखयोनि में उत्पन्न होने वाला है तथा जिसके द्वीन्द्रिय जाति आदि नामकर्म एवं नीचगोत्र रूप गोत्रकर्म जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त के बाद उदयाभिमुख होने वाला है, उस जीव को अभिमुखनामगोत्रशंख कहते हैं।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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