________________
३७४
अनुयोगद्वारसूत्र
इस प्रकार तुम्हारे मत से अनवस्था हो जायेगी। अतः ऐसा मत कहो—प्रदेश भजनीय है, किन्तु ऐसा कहोधर्मरूप जो प्रदेश है, वही प्रदेश धर्म है—धर्मात्मक है, जो अधर्मास्तिकाय का प्रदेश है, वही प्रदेश अधर्मास्तिकायात्मक है, जो आकाशास्तिकाय का प्रदेश है, वही प्रदेश आकाशात्मक है एक जीवास्तिकाय का जो प्रदेश है, वही प्रदेश नोजीव है, इसी प्रकार जो स्कन्ध का प्रदेश है, वही प्रदेश नोस्कन्धात्मक है।
इस प्रकार कहते हुए शब्दनय से समभिरूढ ने कहा —तुम कहते हो कि धर्मास्तिकाय का जो प्रदेश है, वही प्रदेश धर्मास्तिकाय रूप है, यावत् स्कन्ध का जो प्रदेश, वही प्रदेश नोस्कन्धात्मक है, किन्तु तुम्हारा यह कथन युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि यहां (धम्मे पएसे आदि में) तत्पुरुष और कर्मधारय यह दो समास होते हैं। इसलिए संदेह होता है कि उक्त दोनों समासों में से तुम किस समास की दृष्टि से 'धर्मप्रदेश' आदि कह रहे हो ? यदि तत्पुरुष-समासदृष्टि से कहते हो तो ऐसा मत कहो और यदि कर्मधारय समास की अपेक्षा कहते हो तब विशेषतया कहना चाहिए.-धर्म और उसका जो प्रदेश (उसका समस्त धर्मास्तिकाय के साथ समानाधिकरण हो जाने से) वही प्रदेश धर्मास्तिकाय है। इसी प्रकार अधर्म और उसका जो प्रदेश वही प्रदेश अधर्मास्तिकाय रूप है, आकाश और उसका जो प्रदेश है, वही आकाशास्तिकाय है, एक जीव और उसका जो प्रदेश है, वही प्रदेश नोजीवास्तिकाय है तथा स्कन्ध और उसका जो प्रदेश है, वही प्रदेश नोस्कन्धात्मक है।
____ ऐसा कथन करने पर समभिरूढनय से एवंभूतनय ने कहा—(धर्मास्तिकाय आदि के विषय में) जो कुछ भी तुम कहते हो वह समीचीन नहीं, मेरे मत से वे सब कृत्स्न (देश-प्रदेश की कल्पना से रहित) हैं, प्रतिपूर्ण और निरवशेष (अवयवरहित) हैं, एक ग्रहणगृहीत हैं—एक नाम से ग्रहण किये गये हैं, अत: देश भी अंवस्तु रूप है एवं प्रदेश भी अवस्तु रूप है।
यही प्रदेशदृष्टान्त है और इस प्रकार नयप्रमाण का वर्णन पूर्ण हुआ। विवेचन— प्रदेशदृष्टान्त के द्वारा यहां नयों के स्वरूप का प्रतिपादन किया है।
प्रदेश आदि की व्याख्या- जो अतिसूक्ष्म और जिसका विभाग न हो सके, ऐसे स्कन्ध से सम्बद्ध निर्विभाग भाग को प्रदेश कहते हैं। पुद्गलद्रव्य का समग्रपिण्ड स्कन्ध और स्कन्ध का जो प्रदेश वह स्कन्धप्रदेश कहलाता है। धर्मास्तिकाय आदि पांचों द्रव्यों के दो आदि प्रदेशों से जो निष्पन्न होता है उसे देश एवं देश का जो प्रदेश उसे देशप्रदेश कहते हैं।
नयों का मन्तव्य - नैगमनय की दृष्टि से छह प्रकार के प्रदेश हैं। इसका कारण यह है कि नैगमनय का विषय सबसे अधिक विशाल है। वह सामान्य और विशेष दोनों को गौण-मुख्य रूप से विषय करता है। अतएव जब धर्मास्तिकायादि द्रव्यों में सामान्य की विवक्षा से प्रदेशव्यवस्था की जाती है तब नैगमनय 'षट्प्रदेश' शब्द का समास 'षण्णां प्रदेशः षट्प्रदेशः' ऐसा एकवचनान्त शब्दप्रयोग और जब प्रदेशविशेष की विवक्षा की जाती है तब 'पण्णां प्रदेशाः षट्प्रदेशाः' ऐसा बहुवचनान्त शब्दप्रयोग करता है। इस प्रकार से नैगमनय की अपेक्षा षट्प्रदेश होते
हैं।
संग्रहनय की युक्ति है कि षण्णां प्रदेशाः' यह कथन संगत नहीं है। क्योंकि देश का भी जो प्रदेश माना है उस १. प्रकृष्टो देशः प्रदेशो निर्विभागो भाग इत्यर्थः ।
—अनुयोगद्वार. मलधारीया वृत्ति पृ. २२७