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________________ प्रमाणाधिकारनिरूपण देश का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, वह धर्मास्तिकायादिकों तो ३७५ प्रदेशद्वय आदि से ही निष्पन्न है। इसलिए देश का प्रदेश वस्तुत: धर्मास्तिकायादि का ही होगा, क्योंकि द्रव्य से अभिन्न देश का प्रदेश वस्तुतः द्रव्य का ही है। लोक में देखा जाता है कि किसी के दास ने यदि गधा खरीदा, तब जैसे दास उसका माना जाता है वैसे ही गधा भी उसी का कहलायेगा । इसी प्रकार देश का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं होने से प्रदेश धर्मास्तिकाय आदि पांच द्रव्यों के हैं, छह के नहीं । यद्यपि संग्रहनय सामान्य को विषय करता है, लेकिन विशुद्ध और अविशुद्ध की अपेक्षा उसके दो भेद हैं। इनमें से उपर्युक्त कथन अविशुद्ध संग्रहनय का है। अविशुद्ध संग्रहनय अवान्तर सामान्य रूप अपरसत्ता को विषय करता है । यह अवान्तर सामान्य अनेक प्रकार का हो सकता है। इसलिए अवान्तर सामान्य को ग्रहण करने वाले अविशुद्ध संग्रहनय की दृष्टि से पांच द्रव्यों के प्रदेश कहना संगत है । विशुद्ध संग्रहनय अनेक द्रव्यों को और अनेक प्रदेशों को नहीं मानता है तथा सभी पदार्थों को सामान्य रूप से एक स्वीकार करता है । विशेषवादी व्यवहारनय की दृष्टि में सामान्य अवस्तु है, अतः संग्रहनय के मंतव्य के निराकरण के लिए उसने युक्ति दी — पंचानां प्रदेश: ' यह कथन असंगत है। क्योंकि जैसे पांच गोष्ठिक पुरुषों की चांदी, सोना, धन, धान्य आदि में सामान्य साझेदारी होती है, वैसे यदि धर्मास्तिकाय आदि का कोई प्रदेश सामान्य हो तो पांच का प्रदेश कहना उचित है, लेकिन प्रदेश तो प्रत्येक द्रव्य के पृथक् पृथक् अपने-अपने हैं। इसलिए सामान्य प्रदेश के अभाव में ‘पंचानां प्रदेश:' ऐसा कहना अयोग्य है । द्रव्य पांच प्रकार के हैं और प्रदेश तदाश्रयभूत हैं, इसलिए पंचविध: प्रदेश : -- प्रदेश पांच प्रकार का है, ऐसा कहना चाहिए । ऋजुसूत्रनय तो व्यवहारनय से भी अधिक विशेषवादी है, अतः उसने व्यवहारनय की दृष्टि को भी अयुक्त मानते हुए कहा - यदि पांच प्रकार के प्रदेश माने जायें तो धर्मास्तिकाय आदि का एक-एक प्रदेश पांच-पांच प्रकार का होने से प्रदेश पच्चीस प्रकार का हो जायेगा । किन्तु ऐसा कहना सिद्धान्त से बाधित । अतएव ऐसा न कहकर भजनीयता बतलाने के लिए 'स्यात् ' शब्द का प्रयोग करना चाहिए। जैसे स्यात् धर्मप्रदेश यावत् स्यात् स्कन्धप्रदेश । तात्पर्य यह है कि अर्थ की उपलब्धि शब्द से ही होती है । अत: जब पंचविध: प्रदेश : ऐसा कहा जायेगा तब इस कथन से प्रत्येक द्रव्यप्रदेश में पंचविधता प्रतिभासित होगी और पंचविंशतिविधः प्रदेश: ऐसा 'पंचविधः प्रदेश' का वाक्यार्थ होगा। इसलिए ऐसी भ्रान्त धारणा का निराकरण करने के लिए कहो कि धर्मप्रदेश भजनीय है इत्यादि । इस कथन से अपने-अपने प्रदेश का ही ग्रहण होगा, परसम्बन्धी प्रदेश का नहीं । शब्दय की दृष्टि में ऋजुसूत्रनय की यह धारणा भी भ्रान्त है । उसका परिमार्जन करने के लिए शब्दनय का कथन है—' प्रदेश भजनीय है' ऐसा कहने पर तो जो धर्मास्तिकाय का प्रदेश है वह कदाचित् धर्मास्तिकाय का भी हो सकता है और अधर्मास्तिकायादिक अन्य द्रव्यों का भी तथा अधर्मास्तिकाय का प्रदेश भी कदाचित् धर्मास्तिकायादिक का प्रदेश हो सकता है इत्यादि । इस प्रकार अनवस्था होने से वास्तविक प्रदेशस्थिति का अभाव हो जायेगा। भजना में अनियतता होने से प्रदेश अपने-अपने अस्तिकाय का होकर भी दूसरे का भी हो जाने से अनवस्था होगी ही । ऐसी स्थिति में यह कैसे समझा जाये कि जो धर्मास्तिकाय का प्रदेश है वह धर्मास्तिकाय का ही है, इतर द्रव्यों का नहीं। इसलिए ऐसा कहो-जो प्रदेश धर्मास्तिकाय का है वह समस्त धर्मास्तिकाय से अभिन्न होकर ही धर्मात्मक है । इसी तरह अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय इन दोनों के प्रदेशों के विषय में भी जानना चाहिए,
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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