SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 417
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६६ अनुयोगद्वारसूत्र यह चारित्र सूक्ष्मसंपराय नामक दसवें गुणस्थानवर्ती मुनियों को होता है। यह चारित्र संक्लिश्यमानक और विशुद्धयमानक के भेद से दो प्रकार का है । क्षपकश्रेणि या उपशमश्रेणि पर आरोहण करने वाले का चारित्र विशुद्ध्यमानक होता है। जबकि उपशमश्रेणि से उपशांतमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान में पहुंच कर वहां से गिरने पर साधक जब पुनः दसवें गुणस्थान में आता है, उस समय का सूक्ष्मसंपरायचारित्र संक्लिश्यमानक कहलाता है। क्योंकि इस पतनोन्मुखी दशा में संक्लेश की अधिकता है और पतन का कारण संक्लेश है। इसीलिए इसको संक्लिश्यमानक कहते हैं। यथाख्यातचारित्र- प्राकृत में इसको 'अहक्खाय' कहते हैं। उसकी शाब्दिक व्युत्पत्ति इस प्रकार जानना चाहिए—अह-आ-अक्खाय। यहां अह-अथ शब्द याथातथ्य अर्थ में, आ—आङ् उपसर्ग अभिविधि अर्थ में प्रयुक्त हुआ है और अक्खाय क्रियापद है। जिसकी संधि होने पर, अहाक्खाय पद बनता है। फिर 'ह्रस्व संयोगे' इस सूत्र से अकार होने से अहक्खाय पद बन जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि यथार्थ रूप से सर्वात्मना जो चारित्र कषायरहित हो, उसे यथाख्यातचारित्र कहते हैं। आत्मा के सर्वथा शुद्ध भाव का प्रादुर्भाव कषायों के निःशेष रूप से अभाव होने पर होता है। - इस चारित्र के दो भेद हैं—प्रतिपाती और अप्रतिपाती। जिस जीव का मोह उपशांत हुआ है, उसका प्रतिपाती और जिसका मोह सर्वथा क्षीण हो गया है, उसका चारित्र अप्रतिपाती होता है । अथवा आश्रय के भेद से इस चारित्र के दो भेद हैं-छादमस्थिक (छदमस्थ अर्थात ग्यारहवें. बारहवें गणस्थानवी जीव का) और कैवलिक (तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवी जीव का)। यद्यपि ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानवर्ती जीव का मोह सर्वथा उपशान्त और क्षीण हो जाता है परन्तु ज्ञानावरण आदि शेष तीन घातिकर्म (छद्म) रहते हैं। इसीलिए उनको छद्मस्थ कहा जाता है। केवली के मोह के साथ शेष तीन घातिकर्म भी एकान्ततः नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार से चारित्रगुणप्रमाण की प्ररूपणा जानना चाहिए और इस चारित्रगुणप्रमाण का कथन समाप्त होने से जीवगुणप्रमाण का वर्णन पूर्ण हुआ। इसके साथ ही गुणप्रमाण का कथन भी समाप्त हो गया। अब क्रमप्राप्त नयप्रमाण का निरूपण करते हैं। नयप्रमाण निरूपण ४७३. से किं तं नयप्पमाणे ? नयप्पमाणे तिविहे पण्णत्ते । तं जहा—पत्थयदिटुंतेणं वसहिदिटुंतेणं पएसदिटुंतेणं । [४७३ प्र.] भगवन् ! नयप्रमाण का स्वरूप क्या है ? [४७३ उ.] आयुष्मन्! नयप्रमाण का स्वरूप तीन दृष्टान्तों द्वारा स्पष्ट किया गया है। जैसे कि—१. प्रस्थक के दृष्टान्त द्वारा, २. वसति के दृष्टान्त द्वारा और ३. प्रदेश के दृष्टान्त द्वारा। विवेचन— प्रस्तुत में तीन दृष्टान्तों द्वारा नयप्रमाण के स्वरूप का कथन किया है। प्रत्येक जीवादिक पदार्थ अनन्त धर्मात्मक हैं। उन अनन्त धर्मों में विवक्षित धर्म को मुख्य एवं अन्य धर्मों को गौण करके वस्तुप्रतिपादक वक्ता का जो अभिप्राय होता है, वह नयप्रमाण है । यद्यपि नयप्रमाण गुणप्रमाण के अन्तर्गत ही है और नैगम, संग्रह आदि के भेद से बहुत से नय हैं, तथापि स्थान-स्थान पर अत्युपयोगी और गहन विषय वाले होने से यहां प्रस्थक
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy