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________________ प्रमाणाधिकारनिरूपण ३६५ उत्कृष्ट अष्टमभक्त (तीन उपवास) करते हैं। शीतकाल में जघन्य दो, मध्यम तीन और उत्कृष्ट चार उपवास तथा वर्षाकाल में जघन्य तीन, मध्यम चार और उत्कृष्ट पांच उपवास करते हैं। यह क्रम छह मास तक चलता है और पारणा के दिन अभिग्रह सहित 'आयंबिलवत" करते हैं । भिक्षा में पांच वस्तुओं का ग्रहण और दो का अभिग्रह होता है। कल्पस्थित—परिचारक पद ग्रहण करने वाले, वैयावृत्य करने वाले सदा आयंबिल ही करते हैं। इस प्रकार छह महीने तक तप करने वाले (निर्विश्यमानक) साधक बाद में अनुपारिहारिक (वैयावृत्य करने वाले) बनते हैं और जो अभी अनुपरिहारिक थे, वे छह महीने के लिए परिहारिक (तपाराधक) बन जाते हैं । ये भी पूर्व तपस्वियों की तरह तपाराधना करते हैं। दूसरे छह मास के बाद तीसरे छह मास के लिए वाचनाचार्य ही तपस्वी बनते हैं और शेष आठ साधुओं में से सात अनुचारी और एक वाचनाचार्य बनते हैं। इस प्रकार तीसरे छह मास पूर्ण होने के बाद अठारह मास की यह परिहारविशुद्धितपाराधना पूर्ण होती है। कल्प समाप्त हो जाने के पश्चात् वे साधक या तो जिनकल्प को अंगीकार कर लेते हैं अथवा अपने गच्छ में पुनः लौट आते हैं या पुनः वैसी ही तपस्या प्रारंभ कर देते हैं। इस परिहारतप के प्रतिपद्यमानक इसे तीर्थंकर भगवान् के सान्निध्य में अथवा जिसने इस कल्प को तीर्थकर से स्वीकार किया हो उसके पास से अंगीकार करते हैं, अन्य के पास नहीं। ऐसे मुनियों का चारित्र परिहारविशुद्धिचारित्र है। यह चारित्र जिन्होंने छेदोपस्थापनाचारित्र अंगीकार किया हुआ होता है, उन्हीं को होता है। इस संयम का अधिकारी बनने के लिए गृहस्थपर्याय (उम्र) का जघन्य प्रमाण २९ वर्ष तथा साधुपर्याय (दीक्षाकाल) का जघन्यप्रमाण २० वर्ष और दोनों का उत्कृष्ट प्रमाण कुछ कम पूर्व कोटि वर्ष माना है। इस संयम के अधिकारी को साढ़े नौ पूर्व का ज्ञान होता है। इस संयम के धारक मुनि दिन के तीसरे प्रहर में भिक्षा व विहार कर सकते हैं और अन्य समय में ध्यान, कायोत्सर्ग आदि। ये परिहारविशुद्धिचारित्राराधक दो प्रकार के होते हैं—१. इत्वरिक और २. यावत्कथिक । इत्वरिक वे हैं जो कल्प की समाप्ति के बाद उसी पूर्व के कल्प या गच्छ में आ जाते हैं तथा जो कल्प समाप्त होते ही बिना व्यवधान के तत्काल जिनकल्प को स्वीकार कर लेते हैं, वे यावत्कथिक चारित्री कहलाते हैं। सूक्ष्मसंपरायचारित्र— जिसके कारण जीव चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण करता है, उसे संपराय कहते हैं । संसार-परिभ्रमण के मुख्य कारण क्रोधादि कषाय हैं । इसलिए इनकी संपराय यह संज्ञा है। जिस चारित्र में सूक्ष्म अर्थात् संज्वलन के सूक्ष्म लोभरूप संपराय-कषाय का उदय ही शेष रह जाता है, ऐसा चारित्र सूक्ष्मसंपरायचारित्र कहलाता है। २. आयंबिल एक प्रकार का व्रत है, जिसमें विगय—घी, दूध आदि रस छोड़कर केवल दिन में एक बार अन्न खाया जाता है तथा गरम किया हुआ (प्राशुक) पानी पिया जाता है। —आवश्यकनियुक्ति गा. १६०३-५ पंचवस्तुक गा. १४९४ दिगम्बर साहित्य में इसके बारे में थोड़ा-सा मतभेद है। उसमें तीस वर्ष की उम्र वाले को इस संयम का अधिकारी • माना है और नौ पूर्व का ज्ञान आवश्यक बताया है। तीर्थंकर के सिवाय और किसी के पास इस संयम को ग्रहण करने की मनाई है तथा तीन संध्याओं को छोड़कर दिन के किसी भाग में दो कोस जाने की सम्मति दी है। -गो. जीवकाण्ड गा. ४३७
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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