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________________ ३६४ अनुयोगद्वारसूत्र पांच महाव्रत अंगीकार करते हैं तथा इसके स्वामी स्थितकल्पी होते हैं एवं कालमर्यादा उपस्थापना पर्यन्त (बड़ी । दीक्षा लेने तक) मानी जाती है। यावत्कथिक सामायिकचारित्र भरत, ऐरवत क्षेत्रों में मध्य के बाईस तीर्थंकरों के साधुओं में और महाविदेह के तीर्थंकरों के साधुओं में होता है। क्योंकि उनकी उपस्थापना नहीं होती, अर्थात् उन्हें महाव्रतारोपण के लिए दूसरी बार दीक्षा नहीं दी जाती है। इस संयम को धारण करने वालों के महाव्रत चार और कल्प स्थितास्थित होता है।' छेदोपस्थापनिकचारित्र- जिस चारित्र में पूर्व पर्याय का छेद और पुनः महाव्रतों की उपस्थापना की जाती है, वह छेदोपस्थापनिकचारित्र है। यह छेदोपस्थापनिकचारित्र सातिचार और निरतिचार के भेद से दो प्रकार का है। सातिचार छेदोपस्थापनिकचारित्र मूलगुणों (महाव्रतों) में से किसी का विघात करने वाले साधु को पुनः महाव्रतोच्चारपूर्वक दिया जाता है। निरतिचार छेदोपस्थापनिकचारित्र इत्वरिक सामायिक वाले शैक्ष (नवदीक्षित) बड़ी दीक्षा के रूप में ग्रहण करते हैं अथवा एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में जाने पर अंगीकार किया जाता है । जैसे पार्श्वनाथ के केशी आदि श्रमण जब भगवान् महावीर के तीर्थ में सम्मिलित हुए थे तब पुनर्दीक्षा के रूप में इसी संयम को ग्रहण किया था। यह छेदोपस्थापिकचारित्र भरत और ऐरावत क्षेत्र में प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के समय में ही होता है। सामायिक में संपूर्ण व्रतों को सामान्य की अपेक्षा एक मानकर एक यम रूप में ग्रहण किया जाता है और छेदोपस्थापनिकचारित्र में उसी एक यम व्रत को अहिंसामहाव्रत आदि पांच अथवा अनेक प्रकार के भेद करके ग्रहण किया जाता है। किन्तु इन दोनों में अनुष्ठानकृत कोई विशेषता नहीं है। परिहारविशुद्धिचारित्र- परिहार का अर्थ है तपोविशेष और उस तपोविशेष से जिस चारित्र में विशुद्धि प्राप्त की जाती है, उसे परिहारविशुद्धिचारित्र कहते हैं। इसके दो भेद हैं—१. निर्विश्यमानक, २. निर्विष्टकायिक। _ जिस चारित्र में साधक प्रविष्ट होकर तपोविधि के अनुसार तपश्चरण कर रहे हों, उसे निर्विश्यमानक परिहारविशुद्धिचारित्र और जिस चारित्र में साधक तपोविधि के अनुसार तपाराधना कर चुके हैं, उस चारित्र का नाम निर्विष्टकायिक परिहारविशुद्धिचारित्र है। निर्विश्यमानक तपोराधना करते हैं और निर्विष्टकायिक उन तपाराधकों की सेवा करते हैं। परिहारविशुद्धि तपाराधना की संक्षेप में विधि इस प्रकार है नौ साधु मिलकर इस परिहारतप की आराधना करते हैं। उनमें से चार साधक निर्विश्यमानक-तप का आचरण करने वाले होते हैं तथा शेष रहे पांच में से चार उनके अनुपारिहारिक अर्थात् वैयावृत्य करने वाले होते हैं और एक साधु कल्पस्थित वाचनाचार्य होता है। निर्विश्यमान साधकग्रीष्मकाल में जघन्य चतुर्थभक्त (एक उपवास), मध्यम षष्ठभक्त (दो उपवास) और आचेलक्य, औद्देशिक, शय्यातर पिंड, राजपिंड, कृतिकर्म, व्रत, ज्येष्ठ, प्रतिक्रमण, मास और पर्युषणा—इन दस कल्पों में जो स्थित हैं वे स्थितकल्पी तथा शय्यातर पिंड, व्रत, ज्येष्ठ तथा कृतिकर्म इन चार नियमों में स्थित तथा शेष छह कल्पों में जो अस्थित होते हैं, वे स्थितास्थितकल्पी कहलाते हैं। —आवश्यक हरिभद्रीवृत्ति, पृ. ७९० २. यद्यपि इसके साधक श्रुतातिशयसंपन्न होते हैं तथापि वह एक प्रकार का कल्प होने के कारण उनमें एक कल्पस्थित आचार्य स्थापित किया जाता है।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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