SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 412
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमाणाधिकारनिरूपण दर्शन यद्यपि सामान्य को विषय करता है परन्तु चक्षुदर्शन के उदाहरणों में घटादि विशेषों का उल्लेख यह संकेत करने के लिए किया गया है कि सामान्य और विशेष में कथंचित् अभेद होने से वह एकान्ततः विशेषव्यतिरिक्त सामान्य को ग्रहण नहीं करता है, क्योंकि विशेषरहित सामान्य खरविषाण जैसा होता है । इसलिए विशेषों को सामान्य ग्रहण करना दर्शन कहा है। दर्शन भी ज्ञान की तरह आत्मा का गुण है। इसीलिए प्रमाणविचार के प्रसंग में इसका निरूपण किया है। दर्शन के भेद और लक्षण— दर्शनगुणप्रमाण के चार भेदों के लक्षण इस प्रकार हैं १. भावचक्षुरिन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम एवं चक्षु रूप द्रव्येन्द्रिय के अनुपघात से चक्षुदर्शनलब्धि वाले जीव को घट आदि पदार्थों का चक्षु से सामान्यावलोकन होना चक्षुदर्शन है। चक्षुदर्शनसम्पन्न जीव तदावरणकर्म के क्षयोपशम एवं चक्षुरिन्द्रिय के अवलंबन से मूर्त द्रव्य का विकल रूप से (एक देश से) सामान्यतः अवबोध करता है। २. चक्षु के अतिरिक्त शेष चार इन्द्रियों एवं मन से होने वाले पदार्थों के सामान्य बोध को अचक्षुदर्शन कहते हैं। यह अचक्षुदर्शन भाव-अचक्षुरिन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम से और द्रव्येन्द्रियों के अनुपघात से अचक्षुदर्शनलब्धिसंपन्न जीव के घटादि पदार्थों का संश्लेष रूप सम्बन्ध होने पर होता है। चक्षुरिन्द्रिय और मन अप्राप्यकारी हैं। अर्थात् ये दोनों पदार्थों के साथ संश्लिष्ट होकर पदार्थों का दर्शन नहीं करते हैं। वे उनसे पृथक् रहकर ही अपने विषयों को जानते हैं। इसी बात का संकेत करने के लिए अचक्षुदर्शन के प्रसंग में सूत्रकार ने 'आयभावे'आत्मभाव पद दिया है । चक्षु और मन के सिवाय शेष श्रोत्रादिक इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं, अर्थात् पदार्थ के साथ संश्लिष्ट होकर ही अपने विषय का अवबोध करती हैं। यद्यपि चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन से सामान्यतः विकल रूप से पदार्थ का बोध होता है, तथापि दोनों में यह अंतर है कि चक्षुदर्शन का विषय मूर्तद्रव्य है एवं अचक्षुदर्शन के विषय मूर्त और अमूर्त दोनों प्रकार के द्रव्य हैं। ३. अवधिदर्शनावरणकर्म के क्षयोपशम से जो समस्त रूपी पदार्थों का अवधिदर्शनलब्धिसंपन्न जीव को सामान्यावलोकन होता है, उसे अवधिदर्शन कहते हैं । अर्थात् परमाणु से लेकर सर्व महान् अंतिम स्कन्ध तक के मूर्त द्रव्य को जो प्रत्यक्ष देख सकता है, वह अवधिदर्शन है। अवधिदर्शन मूर्त द्रव्य की सर्व पर्यायों में नहीं होता है किन्तु विकल रूप से—देशतः सामान्य अवबोधन कराता है । इसीलिए सूत्र में पद दिया है 'सव्वरूविदव्वेहिं न पुण सव्वपज्जवेहिं ।' क्योंकि अवधिदर्शन की विषयभूत पर्यायें उत्कृष्ट एक पदार्थ की संख्यात अथवा असंख्यात और जघन्य रूप से रूप, रस, गंध और स्पर्श ये चार बताई हैं। निर्विशेषं हि सामान्यं भवेत् खरविषाणवत्। पुढे सुणेइ सई रूवं पुण पासई अपुढे तु । दव्वाओ असंखेजे संखेज्जे आवि पज्जवे लहइ । दो पज्जवे दुगुणिए लहइ य एगाउ दव्वाओ ॥ अनुयोगवृत्ति, पृ. २२० -अनु. मलधारीया वृत्ति पृ. २३०
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy